महात्मा गांधी मानते थे कि इस देश में आप नास्तिक होकर सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ नही लड़ सकते
- आशुतोष तिवारी
गांधी कुशल थे। वह भारत के अंतस से वाक़िफ़ थे। उनका राजनीतिक व्यवहार इस बात की व्याख्या है। मसलन वह जब राजनीति के मैदान में पूरी तरह दाख़िल हुए, उन्होंने वकालत के कपड़े छोड़ कर धोती -कुर्ता पहन लिया। सिर्फ़ इसी एक फ़ैसले ने उन्हें भारत की उस दौर की बहुतायक और साधारण आबादी के क़रीब पहुँचा दिया।
उन्होंने बोलेने के लिए अंग्रेज़ी या खड़ी हिंदी की बजाय आम भारतीय की भाषा हिंदुस्तानी अपनाई । बहुत गहरी बातें बहुत मामूली भाषा में कह कर अपनी बात भारत के आख़िरी आदमी तक पहुँचने में कामयाब रहे। उन्हें देशज आकर्षण के तत्वों की बढ़िया समझ थी। वह इस रजनीतिक समझदारी की वजह से आज़ादी के आंदोलनों में बड़ी भीड़ संगठित करने में सफल रहे।
बात सिर्फ़ लोगों के क़रीब पहुँचने की नही है, वह उस दौर के नायक बने।उनके चारों तरफ़ रहस्य, अध्याम और राजनीति का ऐसा आभा चक्र था जिसने उनके व्यक्तित्व को ले कर भारत के मासूम और कौतूहलिक मानस में एक रहस्यमय संत का बिम्ब तैयार किया। उस दौरान के भारत में बहुत बड़ी आबादी में ग़ैर राजनीतिक लोग थे, जिनको गांधी के राजनीतिक -आध्यत्म ने प्रभावित किया। उनके बारे में उस दौर में हज़ारों जादुई कहानियाँ बनी । NCERT में लिखा है अफ़वाह उड़ी कि गांधी एक जगह नाराज़गी की वजह से नही गए तो वहाँ ओले बरसे। बातें थी कि उनके हाथो की छुअन से लोगों के गम्भीर रोग सही होने लगे। उनके सार्वजनिक आध्यात्म ने उनकी छवि एक राजनेता से कहीं ज्यादा बड़ी कर दी।
गांधी समझते थे कि इस देश में आप नास्तिक हो कर सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ नही लड़ सकते। उन्होंने इसका बेजोड़ हथियार निकाला -हिंदू -मुस्लिम एकता की प्रार्थना सभाएँ और रघु पति राघव राजा राम। उनकी इस राजनीति में भारत के दक्षिणपंथ को हैरत में डाल दिया। इसीलिए भारत के दक्षिणपंथ को गांधी की हत्या ज़रूरी जान पड़ी। गांधी जीते जी सांप्रदायिकता के निर्मम स्वरूपों से लड़ने में काफ़ी कामयाब रहे। उन्होंने हिंदू धार्मिक रह कर भी साम्प्रदायिक को नाकों चने चबवा दिए। यही आज के लिए उनकी सबसे बड़ी सीख जान पड़ती है। वह शानदार सख़्सियत थे। उनको हर तरह से पढ़ा जाना चाहिए।
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