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Wednesday, June 10, 2020

कोरोना काल : बीते 9 दिनों ने मेरी पूरी जिंदगी बदलकर रख दी है, सब कुछ खत्म हो गया

दिल्ली में कोरोना से 8 माह की गर्भवती महिला की मौत एवं अस्पतालों का गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया आपको झकझोर कर रख देगा। सुनिए पूरी सच्ची कहानी कोरोना मृतका के पति राजीव के जुबानी।

‘लापरवाही ने सिर्फ मेरी पत्नी की जान ही नहीं ली, बल्कि उसके पेट में आठ महीने से सांस ले रहे मेरे बच्चे की भी जान ले ली। बीते 9 दिनों ने मेरी पूरी जिंदगी बदलकर रख दी है। सब कुछ खत्म हो गया।’ यह कहते-कहते राजीव का गला भर आया। कुछ देर के लिए फोन पर दोनों ओर से चुप्पी रही। फिर बोले, 28 मई को पता चला कि मोनिका को टाइफाइड हो गया है। हीमोग्लोबिन भी कम हो गया था। तब आठ महीने की प्रेग्नेंट थी।

राजीव दिल्ली के शहादरा में रहते हैं और पत्नी का इलाज गाजियाबाद के यशोदा अस्पताल में चल रहा था। राजीव कहते हैं कि डॉक्टर के कहने पर मैंने 29 मई को उसका कोरोना टेस्ट करवाया। 30 मई की शाम रिपोर्ट पॉजिटिव निकली। अस्पताल वालों ने कहा कि हमारे यहां कोरोना का इलाज नहीं होता, आप किसी और अस्पताल में चले जाइए। मैंने एक-एक अस्पताल में फोन लगाना शुरू किया। दिल्ली सरकार ने जो लिस्ट दी थी, उसमें सभी अस्पताल के नंबर थे।

रात में 1 बजे तक मैं फोन लगाता रहा, लेकिन सभी अस्पताल एडमिट करने से मना करते रहे। जहां फोन लगाता, सिर्फ यही जवाब मिल रहा था कि हमारे यहां बेड फुल हो चुके हैं, आप कहीं और भर्ती करवा दीजिए। कहीं कुछ बात नहीं बनी तो 30 तारीख की रात 1 बजे मैं अपने छोटे भाई के साथ पत्नी को लेकर गुरु तेग बहादुर अस्पताल (जीटीबी) पहुंचा।

अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टर बोले सैम्पल दीजिए यहां फिर से कोरोना की जांच होगी। सैम्पल के लिए हम दूसरे वॉर्ड में गए। वहां जाकर पता चला अभी तो तीन दिन के सैम्पल पेंडिंग हैं। सैम्पल लेने वाले ने कहा अभी सैम्पल लेकर रखने की भी जगह नहीं बची है। मैंने कहा कि आप ये लिखकर दे दो ताकि मैं डॉक्टर को दिखा दूं और वे मेरी पत्नी को एडमिट कर लें। उनका लिखा कागज लेकर हम दोबारा वार्ड में पहुंचे तो डॉक्टर ने कहा कि आप पेशेंट को एलएनजेपी अस्पताल ले जाइए, क्योंकि यहां तो जगह नहीं है।

ये करीब रात 3 बजे के की बात है। थक हारकर हम पत्नी को लेकर वापस घर आ गए। रात साढ़े तीन से सुबह 7 बजे तक मैं अलग-अलग प्राइवेट अस्पतालों में फोन लगाता रहा। लगा कि कोशिश करूं तो कहीं जगह मिल जाए। लेकिन हर जगह यही जवाब मिला कि बेड खाली नहीं है। किसी किसी अस्पताल ने तो ये भी कहा कि अभी हमें कोरोना के इलाज करने का अप्रूवल सरकार से नहीं मिला। एक अस्पताल से पूछा तो बोले कि आपने पहले हमारे यहां इलाज नहीं करवाया है, इसलिए अब यहां भर्ती नहीं कर पाएंगे।

मैक्स अस्पताल से पता चला कि एक बेड खाली हुआ है। कहा कि आप आ जाइए। तारीख थी 31 मई, सुबह साढ़े नौ बजे थे। पत्नी को लेकर मैं वहां पहुंचा। उन्होंने सारी जानकारी ली। मैंने बताया कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। हीमोग्लोबिन भी कम है। आठ महीने का गर्भ है। यह सब सुनने के बाद एक सीनियर डॉक्टर आए और बोले, सॉरी हम आपके पेशेंट को नहीं ले सकते, क्योंकि बेड नहीं है। जब मैंने बोला कि मुझे फोन पर बताया था कि बेड है, इसलिए ही मैं आया। तो उन्होंने मानने से इनकार कर दिया।

यहां से हम मोनिका को एलएनजीपी अस्पताल ले आए। दो घंटे औपचारिकताएं चलती रहीं। फिर कुछ देर बाद उसे कॉमन रूम में शिफ्ट कर दिया। हैरानी की बात ये थी कि अगले चौबीस घंटे पत्नी का कोई ट्रीटमेंट ही नहीं हुआ। हां, रात में एक बार कोई आया उसने बच्चे के दिल की धड़कन देखी और चला गया।

मैंने डॉक्टर से कहा भी कि पत्नी को कोई देखने नहीं आया। उसका इलाज नहीं हो रहा। तो बोले कि हम प्रोसीजर के हिसाब से काम कर रहे हैं। आप हमें मत बताइए। उसे दो बार एक से दूसरे वार्ड में शिफ्ट किया, इस दौरान वह अपना सामान खुद यहां से वहां ले जा रही थी। कॉमन वार्ड में पंखा नहीं था और काफी गंदगी थी। इसी बीच मैंने एक दूसरे प्राइवेट हॉस्पिटल में दस हजार रुपए एडवांस जमा कर दिए और उन्हें कहा कि एक भी बेड खाली हो तो प्लीज मुझे बताइएगा।

एक जून की रात को उसकी तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई। फिर उसे आईसीयू में शिफ्ट कर दिया। वहां एसी लगा था तो उसे थोड़ी राहत मिली। अगले दिन उसकी तबियत थोड़ी ठीक हुई। रात को उसका फोन आया की बहुत तेज प्यास लगी है और कोई पानी नहीं दे रहा। वह कह रही थी कि उससे बेड से उठा नहीं जा रहा। तब मैं घर पर था। अस्पताल को फोन किया तो किसी ने बात नहीं सुनी। रात को दस बजे मैं पत्नी को पानी देने अस्पताल पहुंचा।

अस्पताल जाकर इन्चार्ज को बताया भी कि मैं शहादरा से वहां सिर्फ पत्नी को पानी पिलाने आया हूं। उन्होंने मुझे तो अंदर नहीं जाने दिया, लेकिन पत्नी के पलंग तक पानी पहुंचा दिया। तब तक उसे प्यास से तड़पते तीन घंटे हो चुके थे। 3 तारीख का दिन यूं ही निकल गया। उसके अगले दिन यानी 4 जून को शाम को डॉक्टर ने उसे एक इंजेक्शन लगाया। मैंने उससे वीडियो कॉल पर बात की तो वो ठीक लग रही थी।

12 बजे मैं घर लौट आया। रात को 3 बजे मेरे पास फोन आया कि आपकी पत्नी की हालत बहुत बिगड़ गई है, उसे वेंटिलेटर पर शिफ्ट कर रहे हैं। 4 बजे तक मैं अस्पताल पहुंच गया। अस्पताल वाले बोले कि कितनी देर की जिंदगी है कह नहीं सकते। सुबह आठ बजे बताया कि हम आपकी वाइफ को बचा नहीं सके। मैंने पूछा मेरा बच्चा? तो बोले मां और बच्चे दोनों की मौत हो गई। दोपहर 12 बजे मेरी पत्नी की बॉडी एम्बुलेंस में रखकर अस्पताल वाले श्मशान घाट ले गए।

राजीव और मोनिका की ढाई साल पहले ही शादी हुई थी। ये उनका पहला बच्चा था। बच्चे को लेकर कई सपने देखे थे, लेकिन अस्पताल की इस लापरवाही ने उनका सबकुछ खत्म कर दिया।

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