मन को दबाकर मत रखिए, अपनी बात कहिए, डिप्रेशन के लिए हमारा समाज सबसे ज्यादा दोषी है
-हरिशंकर शाही
डिप्रेशन कोई ऐसी बीमारी नहीं है, जैसे कैंसर या अन्य, जिसकी किन्हीं स्थितियों में असह्य दर्द में आदमी मरने की भीख मांगता है. डिप्रेशन कई कारणों से उपजने वाली मन की स्थिति है, जिसमें मुख्यतः आपकी बनावटी जिंदगी या फिर सामाजिक दबाव या फिर कोई आर्थिक समस्या या फिर कोई बीमारी या विश्वास का टूटना शामिल होता है, जिससे यह स्थिति बनती है.
तो कोई डिप्रेशन को छू-मंतर बोलकर या दवा खाकर नहीं दूर कर सकता है, अधिकांश या यूँ कहूँ कि सभी मानसिक बीमारियाँ लाइलाज़ होती हैं. क्योंकि वह सिर्फ लक्षण या स्थितियाँ होती हैं. बीमारी तो कहीं और होती है. तो उस बीमारी को दूर करने के लिए ही परिवार, रिश्ते, समाज, दोस्त और भगवान सहारा बनते हैं. बीमारी का मतलब वह कारण से है, जिसके लिए सहारा चाहिए होता है, हौंसला चाहिए होता है.
तो सुशांत सिंह राजपूत हों या हर साल मरने वाले सैकड़ों-हजारों बच्चे या व्यापारी या नौकरी पेशा या पेशेवर लोग. इन सबकी जो स्थितियाँ रहीं उनमें इनको समझने वाला कोई नहीं रहा. इसीलिए ज़िंदगी में भौतिकता के इतर साथी तलाशिए, सेक्स नहीं पार्टनर तलाशिए, परिवार बनाइए, भाई-बहन, भतीजे-भतीजी, सबके साथ रहिए. दोस्त ना भी बनें तो ना सही लेकिन जो भी रिश्ता बने ठोस बनाइए ऐसा नहीं कि बस केवल पार्टी वाली लक-दक और बात करने पर बोर ना कर की सलाह मिले.
तो हमेशा अपनी बात कहिए, मन को दबाकर मत रखिए. तभी इलाज़ होगा और इस डिप्रेशन के लिए हमारा समाज ही सबसे अधिक दोषी है. वर्ना आप देखिए पूर्व में युद्ध होते थे, पर आत्महत्याएँ कम होती थीं. अब बहस ना करने लगिएगा कि इतिहास में क्लियोपैट्रा ने आत्महत्या की तो मीरा और सुकरात को जहर पीना पड़ा. ये सब सामान्य मामले नहीं थे, ऐसा होता तो धर्म में आत्महत्या को निषिद्ध कर्म नहीं माना जाता. यह समाज स्वीकृत नहीं है.
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