फिल्म समीक्षा: 'गुलाबो सिताबो' का हर फ्रेम जैसे अपने अंदर एक अलग कहानी लिए हुए है
-कुश वैष्णव
सेल्युलाइड पर कविता है फ़िल्म 'गुलाबो सिताबो'। पीकू और अक्टूबर के बाद शूजित साबित करते हैं कि सिनेमा निर्देशक का माध्यम है। लेखक के रूप में जूही चतुर्वेदी ने इस बार फिर कमाल किया है। कहानी इस बार भले ही एक पन्ने पर कह दी जा सकती है लेकिन उन्होंने बेहतरीन डायलॉग लिखकर अपने लेखन की छाप छोड़ी है। एक प्लॉट की सीमित संभावनाओं से कैसे उम्दा फ़िल्म बनाई जा सकती है ये शूजित से सीखना चाहिए। फ़िल्म का हर फ्रेम जैसे अपने अंदर एक अलग कहानी लिए हुए हो। अदायगी के मामले में अमिताभ बच्चन सब पर भारी रहें। पीकू के सनकी बूढ़े के रोल के बाद इस बार लालची बूढ़े के रोल में उन्होंने जान डाल दी।
लालच भी इस फ़िल्म के लीड रोल में है। लगभग हर किरदार लालची और प्रेक्टिकल है। आयुष्मान खुराना, विजय राज और बृजेन्द्र काला जैसे मंझे हुए अभिनेता भी फ़िल्म में हैं मगर ये तीनों जैसे और फिल्मों में होते है वैसी ही एक्टिंग उन्होंने की है। स्पेशल मेंशन बेगम के रोल में फर्रुख ज़फर और गुड्डो के रोल में सृष्टी श्रीवास्तव का बनता है। दोनों के पास स्क्रीन प्रजेंस कम है लेकिन छाप छोड़ी है।
लखनऊ वालों को फ़िल्म ज़रूर पसंद आएगी क्योंकि शहर भी एक किरदार की तरह है फ़िल्म में। अलीगंज, केसरबाग, हज़रतगंज का ज़िक्र और अमीनाबाद की लोकेशन फ़िल्म को खूबसूरत बनाती है। फ़िल्म की मंथर गति के साथ ताल मिलाकर चलने वाला बैकग्राउंड म्यूज़िक भी फ़िल्म की जान है। अगर फ़िल्म में वो नहीं होता तो शायद देखते वक़्त थोड़ी से दिलचस्पी कम हो सकती थी।
स्क्रिप्ट की अच्छी बात ये है कि ये कहीं पर भी लाउड नहीं होती, भावुक नहीं होती बल्कि पीकू की तरह थोड़ा थोड़ा गुदगुदाते हुए अपनी कहानी कहती है। यूँ तो फ़िल्म में कई बेहतरीन दृश्य है लेकिन मुझे जो पसंद आया वो एक दृश्य है जिसमे एक कठपुतली वाला गुलाबो सिताबो नाम की कठपुतलियों का नाच बच्चों को दिखा रहा है और पीछे से अमिताभ हाथ में बैलून लिए जा रहे हैं। उस सीन में कैमरे का क्राफ्ट कमाल है। यहाँ, मद्रास कैफे और विकी डोनर से होते हुए शूजित का ये सफ़र वाकई क़ाबिल ए तारीफ़ है। फ़िल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए।
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