अलविदा सुशांत: डिप्रेशन एक बहुत डरावना शत्रु है, यह हम सबके भीतर छिपकर बैठा होता है
-राकेश कायस्थ
आसामयिक मौत हमेशा आपको भीतर से तोड़ती है। यह टूटन उतनी ही ज्यादा होती है, जितने करीब से आप मरने वाले को जानते हैं, या उससे रिलेट कर सकते हैं। इरफान की मौत के बाद मैंने कुछ नहीं लिखा था। हिम्मत नहीं हुई थी। हिम्मत आज भी नहीं हो रही है, फिर भी लिख रहा हूँ। आखिर क्यों? आभासी दुनिया में ही सही लेकिन हम खुद एक्सप्रेस करना चाहते हैं। शायद एक-दूसरे में वो कंधा ढूँढते हैं, जिसपर सिर टिका सकें।
काश! सुशांत के पास वो कंधा होता। एक्सप्रेशन का विंडो होता। उसे लगता कि दुनिया ( जितनी छोटी या बड़ी हो) मुझे सुन रही है, मेरी बात समझ रही है। चंद लोग हैं, जो मेरे साथ खड़े हैं। आत्महत्या से त्रासद दुनिया में कोई और दूसरी चीज़ नहीं है। यह सोचकर रूह काँपती है कि व्यक्ति मरने से पहले कितना अकेला रहा होगा। अपनी अर्थी खुद तैयार करना, अपनी नियति पर अकेले में रोना और फिर वो कदम उठाना जिसके बाद पूरी दुनिया ये कहे कि तुमने ऐसा क्यों किया!
डिप्रेशन एक बहुत डरावना शत्रु है। यह हम सबके भीतर छिपकर बैठा होता है। जब हम आत्म दीनता की स्थिति में अकेले, असहज और असहाय होते हैं तो धीरे से कंधे पर हाथ रखता है, पहले पुचकारता है और फिर आहिस्ता-आहिस्ता करके गला दबा देता है। हर आदमी के भीतर यह दर्द होता है कि दुनिया ने उसे ठीक से नहीं समझा। यह उन लोगों में भी होता है, जिनके चारों तरफ हमेशा से कुंठा का एक घेरा होता है और उनमें भी होता है, जो तथाकथित समाजिक मानदंडों पर बहुत सफल माने जाते हैं।
हमारे लोग हमारा परिवेश हमारा ओजोन लेयर हैं। आपके आसपास हमेशा कुछ ऐसे लोग होने चाहिए जो ज़रूरत पड़ने पर भावनात्मक स्तर पर आपकी मदद कर सकें और मदद लेने में आपको झिझक महसूस ना हो। वैसे कहना बहुत आसान है लेकिन डिप्रेशन एक ऐसा दलदल है, जिसमें धँसते हुए आदमी को बाहर निकाल पाना बहुत मुश्किल काम होता है। अगर खुद फँसे हों तो और भी मुश्किल है।
अवसाद का हल्का झोंका भी आये तो उसे फौरन पहचानिये। मानसिक स्वास्थ्य भी कोई विचारणीय चीज़ हो सकती है, यह मानने में हमें झिझक होती है और कई बार यह झिझक ऐसा नुकसान पहुँचा जाती है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। इरफान की मौत ने भी अंदर से बहुत तोड़ा लेकिन मैं जब भी ऑन स्क्रीन उसे देखता हूँ तो अच्छा लगता। उसने जिंदगी की कतरे-कतरे का सम्मान किया और आखिरी दम तक लड़ा।
सुशांत की कोई फिल्म मैं दोबारा देख नहीं पाउँगा। जब वो स्क्रीन पर होगा तो नज़रे मिलाने की हिम्मत नहीं होगी। यह ख्याल आएगा कि उसे खींचकर गले लगा लूँ और कहूँ-- रूक जा भाई ये तू क्या कर रहा है!
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