जवाहर लाल नेहरू और विपक्ष : ‘हिंदुस्तान के लोग मुझ जैसे आदमी को बर्दाश्त क्यों करते हैं?‘
-अरविंद कुमार सिंह
17 अगस्त 1994 को अटल बिहारी वाजपेयीजी को सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान मिला। इस मौके पर अपने भाषण में उऩ्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू का खास जिक्र करते हुए कहा कि विपक्ष की मांग पर उन्होंने अपने सहायक एम ओ मथाई को हटाने का फैसला तत्काल कर लिया था और कहा था कि जब सदन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह महसूस करता हो कि कुछ न कुछ किया ही जाना चाहिए तब बहुमत के लिए यह कतई उचित नहीं है कि सदन की इच्छा को दरकिनार कर दिया जाए।
बीते कई सालों में उनकी छवि को नायक की जगह खलनायक की बनाने की कोशिश की गयी है। विपक्ष शब्द को निरर्थक अवरोधक या बाधक साबित करने का प्रयास सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से नहीं बल्कि आपातकाल का विरोध करने में अव्वल रहने वाले कुछ पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों और पत्रकारों तक की ओर से हो रहा है। विपक्ष के द्वारा उठाए गए सवालों पर उनका हमला पाकिस्तान पर होने वाले हमले से भी तीखा होता है। वे मानते हैं कि विपक्ष को मौन साधे रहना चाहिए और बोलना केवल सरकार का ही हक होना चाहिए। उनका ये मत भी है कि विपक्ष उनकी स्क्रिप्ट पढ़े। लेकिन इसी दौर में पंडित नेहरू और प्रासंगिक नजर आते हैं।
पंडित नेहरू के सामने बाकी चुनौतियां भले थीं लेकिन राजनीतिक स्थिरता की चुनौती किसी स्तर पर नहीं थी। न केंद्र में न संसद और दूसरे विधायी निकायों में। वे एकछत्र नायक थे। भारत ही नहीं पूरी तीसरी दुनिया के। यहां तक कि जो लोग सरदार पटेल का जिक्र फर्जीवाड़ा करके करते हैं, वे अगर उनके तमाम भाषणों और आखिरी भाषण को सुन लें तो समझ में आ जाएगा कि बड़ा होने के नाते सरदार पटेल नेहरू को न केवल स्नेह देते थे बल्कि अपना नेता भी मानते थे। पंडित नेहरू प्रधानमंत्री होने के बाद भी किसी भी सवाल पर बातचीत करने के लिए खुद पटेल के घर जाते थे और खुल कर बात करते थे। पंडित नेहरू अस्थायी संसद यानि 1950 से 1952 और फिर पहली से तीसरी लोक सभा यानि 1952 से 1964 में अपने निधन तक प्रधानमंत्री और लोक सभा में नेता सदन रहे। उस दौरान विपक्ष प्रतीकात्मक ही था। फिर भी प्रबल बहुमत के बाद हाशिए पर पड़े विपक्ष की बात का जैसा आदर नेहरू के शासनकाल में हुआ है, वह आगे लगातार कम होता रहा। नेहरू का ही शासन था जबकि विपक्ष के कहे मुताबिक बहुत से फैसलों को सरकार ने बदला था। पंडित नेहरू खुद इस बात को सार्वजनिक तौर पर कहते थे कि ‘मैं नहीं चाहता कि भारत ऐसा देश बने जहां लाखों लोग एक व्यक्ति की हां में हां मिलाएं, मैं मजबूत विपक्ष चाहता हूं।’’
विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्के हिमायती पंडित नेहरू लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता को सबसे ऊंचे पायदान पर रखते। उनका कहना था कि ‘मैं किसी चीज के बदले में लोकतांत्रिक प्रणाली का त्याग नहीं करूंगा।’ वे अपने मुखर आलोचक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बहुत आदर करते थे उनकी बात को हमेशा बहुत गंभीरता से सुनते थे। 14 मार्च 1951 को बजट पर बहस के दौरान लोक सभा में अपने ही साथियों के द्वारा सरकार की आलोचना करने को बुरा नहीं माना बल्कि सराहा और यह भी कहा कि अगर इस सदन में प्रभावी विपक्ष होता तो जरूर सरकार की कमियों पर ध्यान दिलाता और रचनात्मक सुझाव देता, लेकिन ऐसा नहीं है। इस नाते मैं अपने सभी माननीय सदस्यो की आलोचना का स्वागत करता हूं। नेहरू हमेशा खरी बात करते थे। 1953 में लोकसभा में उन्होंने कहा था कि ..सरकार के लिए निर्भीक आलोचकों और विपक्ष का होना जरूरी है। आलोचना के बिना लोग अपनें में संतुष्ट अनुभव करने लगते हैं। सरकार आत्मसंतुष्ट हो जाती है। यह ठीक नहीं है क्योंकि सारी संसदीय व्यवस्था आलोचना पर आधारित है। अस्थायी संसद के दौरान ही कांग्रेस के महावीर त्यागी से लेकर आचार्य जे.बी. कृपलानी जैसे नेताओं की कठोर आलोचना को नेहरू ने बर्दाश्त ही नहीं किया बल्कि आलोचना करने को वे प्रोत्साहित करते थे। एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि मैं अक्सर ताज्जुब करता हूं कि पिछले कुछ महीनों में जो कुछ हुआ है उसके बाद हिंदुस्तान के लोग मुझ जैसे आदमी को बरदाश्त क्यों करते हैं। मैं खुद यकीन के साथ कह सकता हूं कि अगर में सरकार में न होता तो क्या मैं इस सरकार को बरखास्त कर सकता था।
जवाहर लाल नेहरू के निधन पर 29 मई 1964 को राज्य सभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने भाषण दिया वह बताता है कि विपक्ष के नेताओं में उनके प्रति कैसा भाव था। अटलजी ने कहा ता कि...संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा। शायद, तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा। वह व्यक्तित्व, वह ज़िन्दादिली, विरोधी को भी साथ लेकर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रमाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति, और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। ये भाषण और बहुत से भाषण इस बात की गवाही हैं कि विपक्ष भी उनके प्रति कैसा भाव रखता था। ऐसा नहीं है कि संसद से वह परंपरा विदा हो गयी है। वह आज भी कायम है। थोड़ा रूप बदल सकता है लेकिन बाहर उसका स्वरूप जरूर बदल चुका है।
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