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Sunday, July 12, 2020

कोरोना काल : शिक्षा पर गहराते संकट को समझें, देश में सिर्फ शिक्षा के सतही सवालों का बोलबाला है



- कृष्ण कुमार 
मुसीबत कैसी भी हो सामाजिक जीवन में छिपी सच्चाइयों को बाहर लाती है। रेल में बैठकर यात्रा करना रोज़मर्रा की जिंदगी का अंग बन चुका है। इसलिए दुर्घटना हो जाने पर ही रेल व्यवस्था में पसरी असमानता उजागर होती है। कोरोना वायरस की महामारी ने हमारे लोकतंत्र के हर अंग में बसी विषमता आंखों के सामने ला दी है। पिछले तीन महीनों में ऐसे - ऐसे दृश्य दैनिक समाचारों में दिखाई दिए हैं जो इतिहास की विभीषिकाओं में दर्ज होकर अतीत की सामग्री बन चुके थे। इनका विश्लेषण व विवेचन बरसों चलेगा, तभी समाज कोरोना महामारी से पैदा हुए आपात काल को जज़्ब कर पाएगा। 

आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसी विवेचना काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। यही सोचकर शिक्षा की सर्वोच्च वैश्विक संस्था यूनेस्को ने अपने मुख-पत्र का एक समूचा अंक इस विषय पर सोच - विचार के लिए नियत किया है कि कोरोना संकट से पाठ्यक्रम में कौन - कौन से बदलाव आएँगे और आने चाहिए। यह बहस हर देश की शिक्षा व्यवस्था के प्रत्येक स्तर पर चलनी चाहिए। फिलहाल हमारे यहां शिक्षा के सतही सवालों का बोलबाला है। राज्य सरकारों को चिंता है कि परीक्षाएं कैसे ली जाएं। 

नामी संस्थानों में प्रवेश के लिए बड़े जतन से आयोजित की जाने वाली वार्षिक प्रतियोगी परीक्षा रुकी पड़ी है। इस राष्ट्रीय प्रतियोगिता की छाया में फला - फूला कोचिंग व्यवसाय भी सहमा खड़ा है। उधर विश्वविद्यालयों की देखा - देखी स्कूल के विद्यार्थी भी ऑनलाइन पढ़ाई के पात्र बन गए हैं। कई लोगों ने चिंता जाहिर की है कि इंटरनेट की पहुंच स्वयं इतनी विषमता ग्रस्त है कि ऑनलाइन कक्षाएं सबके लिए सुलभ नहीं बनाई जा सकती हैं। डिजिटलीकरण के व्यापारी व विशेषज्ञ जरूर कहेंगे कि वे सारी विषमताएं पाट सकते हैं। बस उन्हें कुछ और खुली छूट दी जाए। 


वे सोचते है कि आर्थिक सुधारों में काफी कसर है। वरना हर ग्रामीण बच्चे के हाथ में स्मार्ट फोन और घर पर लेपटॉप होता। इस फंतासी का न अंत है न जवाब। उत्तरप्रदेश व राजस्थान में मुफ्त लैपटॉप बांटने की मुहिम एक बार चल चुकी है। बहुत मुमकिन है कोरोना के माहौल में दोबारा चल पड़े। शिक्षा व्यवस्था से ज्यादा शिक्षा संबंधी सोच का दिवाला निकला है। नेता, अफ़सर, प्राचार्य, अब किसी प्रश्न की गहराई में नहीं जाना चाहते, यह शायद उनके बस का भी नहीं है। जिनके बस का है उसे उन्होंने हाशिए के उस पार धकेल दिया है। उस व्यक्ति का नाम है अध्यापक। पूरी व्यवस्था में केवल वहीं समझता है, पढ़ाना क्या होता है। आप जैसे ही यह चर्चा किसी अधिकारी या नेता के साथ शुरू करते है, वह फौरन शिक्षकों की बुराई में लग जाता है। यह विमर्श लगातार हावी रहा है कि अच्छे शिक्षक तो प्राचीन काल में होते थे। आज के शिक्षक को वेतन से मतलब है। इस विचार के दबदबे ने शिक्षकों की वास्तविक स्थिति को समाज की आंखों से ओझल कर दिया है। 

शिक्षक की बात सुनी जा सकती तो, हम समझ पाते कि ऑनलाइन पढ़ाकर बच्चों को बौद्धिक रूप से सक्रिय नहीं बनाया जा सकता है। बच्चों को शिक्षा देने के लिए विद्यालय अनिवार्य है। विद्यालय में बच्चों को शिक्षा के साथ - साथ अन्य गतिविधियों में शामिल होने का मौका मिलता है। शिक्षा के इतर इन गतिविधियों से बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है। बच्चा मानसिक और शारीरिक रूप से मज़बूती प्राप्त करता है। साथ ही बच्चे को कक्षा कक्षों में अध्यापक के माध्यम से मिल रही शिक्षा बच्चे के व्यक्तित्व का विकास करती है। यही शिक्षा बाद में आर्थिक और सामाजिक जीवन में काम आती है। इसी बेसिक शिक्षा के बल पर उसके करियर का निर्धारण होता है। 


मजबूरी में पाठ पूरे करना एक बात है। ऑनलाइन शिक्षण को एक विकल्प की तरह देखना एक दम दूसरी बात है। अधीर और उकताया हुआ दिमाग ऐसी बात सोचता है। स्वास्थ्य तंत्र जिस समय संक्रमण से जूझ रहा है। उस समय शिक्षा तंत्र अपनी कमजोरियों से जूझ सकता था। यह कमजोरियां नई - नई हैं, पर इनका निदान व ईमानदार विश्लेषण कोरोना से पैदा हुई परिस्थिति से संभव है। इस परिस्थिति ने पहले से चली आ रही विसंगतियों व समस्याओं में कुछ नई चीजें जोड़ दी हैं। कुछ परेशानियों के नए कोण भी चमक उठे है। अंग्रेजी माध्यम का मंत्र जपती सरकारें जल्द ही उन लाखों ग्रामीण बच्चों से रूबरू होंगी, जो अपने माता - पिता के साथ किसी सुदूर राज्य से लौटे हैं और अभी तक उस राज्य की भाषा में शिक्षा पाते रहे है, जहां वे रह रहे थे।

यह एक उदाहरण भर है। कोरोना संकट से उपजी परिस्थिति के शैक्षिक आयाम इतने विविध व जटिल हैं कि एक साथ पकड़ में नहीं आ सकते। एक पहलू इतना बुनियादी है कि उसका संज्ञान अभी तक न लिया जाना आश्चर्य का विषय है। पिछले दशकों में निजी स्कूलों का विस्तार शहर और गांव हर जगह पर हुआ है और सरकारी स्कूल उजड़े हैं। हजारों सरकारी स्कूल इस आधार पर बंद किए गए है कि उनमें बच्चों की संख्या बहुत कम रह गई थी। अब स्थिति उलटने का संकेत दे रही है। 

कमाई के साधनों से वंचित अभिभावक फीस देने की हालत में नहीं है। इस कारण फीस के सहारे चलने वाले प्राइवेट स्कूल अपने शिक्षकों को तनख्वाह देने की हालत में नहीं रह गए हैं। अब बहुत से शिक्षक बेरोजगार हो जाएंगे। कुछ राज्यों में अनेक अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में डालना चाहते है। वहां शिक्षकों और जगह की कमी कई सालों से बढ़ती चली आ रही है क्योंकि नीतिकारों ने मान लिया था कि बच्चों की तादाद अब प्राइवेट स्कूलों में बढ़ेगी। उभरती हुई नई परिस्थिति इस बात की हल्की सी आशा जगाती है कि हर हिंदी भाषी राज्य का शिक्षा तंत्र नए सिरे से यानी पूर्वाग्रहों को छोड़कर कोरोना संकट के निहितार्थों पर विचार करेगा। 


उधर, बाकी देश व अन्य देशों में नए सवालों की उम्मीद की जा सकती है। कोरोना से पैदा विपत्ति से देश का हर प्रदेश और दुनिया का हर देश कुछ अलग ढंग से लड़ा है। भारत में केरल का आदर्श चर्चा में रहा है। एशिया में जापान और यूरोप में जर्मनी के प्रयास का अनुभव कुछ विशिष्ट है। केरल और बिहार की तुलना करके दोनों प्रांतों के छात्र भौगोलिक ऐतिहासिक व राजनैतिक परिस्थितियों के मिले - जुले प्रभाव का रोचक अध्ययन कर सकते हैं। 

कोरोना संकट से उपजे सबसे तीखे सवाल शिक्षा के अधिकार के कानून पर किए जा रहे अमल को घेरते हैं। कुछ बरसों से उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों में इस कानून का पालन कमजोर पड़ता चला गया है। केंद्र की मदद में कमी और प्रांतीय प्रशासनों के भीतर पनपती नीतियां प्रारंभिक शिक्षा के अधिकार को खोखला बना रही हैं। कोरोना के फैलाव से भारी संख्या में बड़े शहरों से श्रमिकों की अपने गाँवों में वापसी और बेरोज़गारी, शिक्षा के अधिकार पर अमल में आई एक नई मुसीबत है। हिंदी प्रांत खासकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार में फिलहाल इस मुश्किल से निपटने की कोई तैयारी नजर नहीं आती।

राजस्थान, हरियाणा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी ऐसी तैयारी के लक्षण नहीं दिखाई देते। इन सभी राज्यों में कॉरपोरेट घरानों व गैर सरकारी उपक्रमों को प्रारंभिक शिक्षा व्यवस्था में बड़ी जिम्मेदारियां सौंप देने का सिलसिला वर्षों से चल रहा है। यह प्रवृत्ति कोरोना की फैलती विभीषिका में शिक्षा व्यवस्था के लिए महंगी पड़ेगी। बच्चों की शिक्षा को राज्य की प्रमुख ज़िम्मेदारी मानने का कोई विकल्प नहीं है। (लेखक पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी हैं)

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