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Wednesday, July 8, 2020

Netflix की '21 सरफरोश सारागढ़ी' के सामने 'केसरी' कुछ नहीं, अक्षय ने माहौल की फसल काटी



- राकेश सांगवान
रणदीप हुड्डा एक शानदार अभिनेता है, जो अपने अभिनय से पात्र में जान डाल देता है। रणदीप जिस भी पात्र की भूमिका निभाता है उस पात्र को वह अपने निजी में ढाल लेटा है ताकि पात्र को निभाने में ईमानदारी बरती जा सके। सरबजीत फिल्म में भी हम सभी ने देखा कि कैसे रणदीप ने खुद को असली के सरबजीत में ढाल लिया था और जब रणदीप ने Battle of Saragarhi शुरू की तो इसने खुद को निजी जीवन में भी सिख के स्वरुप में ढाल लिया, जिस कारण फिल्म का पोस्टर कभी चर्चा का विषय बन गया था और आम आदमी में भी रणदीप को फिल्म में इस स्वरूप में देखने की जिज्ञासा बढ़ गई थी।

रणदीप की फिल्म पर काम चल रहा था पर तभी एक भारतीय राष्ट्रवादी कैनाडा का नागरिक कूद पड़ा और उसने इस विषय पर “केसरी” नाम से फिल्म निकाल दी। अब ये श्रीमान लोगों की भावनाओं से खेलने में माहिर हैं। इन्हें वक्त की खूब समझ है। इन्हें समझ है कि आज देश में राष्ट्रवाद और धर्म की भावनाए हिलौरे ले रही है तो इसने इस फिल्म का नाम रखा “केसरी” और फिल्म में केसरी रंग की पगड़ी पहनी और इस प्रोपगंडा में ये कामयाब भी रहा। 

बैटल ऑफ़ सारागढ़ी 36 सिख की एक कम्पनी के 21 जवानों ने लड़ी थी। इस पर Netflix पर एक  21 Sarfarosh–Saragarhi 1897 नाम से एक सीरीज भी है। इस कम्पनी के जवानों की पगड़ी का रंग खाकी था, जो रणदीप हुड्डा ने पहनी हुई है और सीरीज में भी इस कम्पनी के सभी जवानों की पगड़ी खाकी रंग की ही दिखाई है, फिल्म में भी बाकी के जवानों ने खाकी पगड़ी पहनी, आज भी सिख रेजिमेंट की पगड़ी का रंग केसरी नहीं लाल है, परन्तु वक्त की नब्ज को पहचानने वाले कनाडाई नाड़ियां वैद्य ने अलग ही राग अलापा और खुद अकेले ने अलग से केसरी पगड़ी पहन कर एक राजनीतिक दल द्वारा बनाई गई जनभावना का सही से इस्तेमाल किया, जबकि यह लड़ाई कोई धर्म की नहीं धरती की थी। इस लड़ाई में सामने मुस्लिम पठान थे तो केसरी रंग की बात माहौल बनाने की लिए सही थी और केसरी रंग की बात आने पर दर्शकों की भावना बढ़िया तरीके से हलाल की गई, खुद भी बढ़िया माल कमाया और उस राजनीतिक दल के प्रोपगंडा को भी पुख्ता कर दिया।

खैर, स्याणे हैं तभी तो छद्दम राष्ट्रवादी जी देश की नागरिकता ही छोड़ गए और जनता की भावनाओं को अब बढ़िया से हलाल कर रहें हैं। थोथा चना बाजे घना वाली कहावत है इनके साथ। लोग कहेंगे कि तो क्या हुआ, देखो कितनी चैरिटी करता है। चैरिटी हर कोई करता है फर्क इतना है कि उसकी नुमाइश करने में कामयाब ज्यादा कौन होता है। इनको नुमाइश पर थोडा ज्यादा जोर देना पड़ रहा है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया तो नागरिकता वाला बवाल ज्यादा उठ जायेगा और फिर राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर बनी जनभावना की फसल कैसे काटेंगे? बाजार के खिलाडी हैं ये इन्हें पता है देश धर्म सबका बाजारीकरण करके कैसे दुकान चलानी है।

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