ब्रांड मोदी: मायाजाल टूट रहा है, घरेलू मोर्चे पर समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, पीक इज ओवर !
- मनीष सिंह
इंडियाज वन मैन बैंड के शीर्षक के साथ यह तस्वीर, द इकॉनमिस्ट के मुख्यपृष्ठ पर छपी थी। मौका उनके पहले कार्यकाल का पहला साल पूरा होने का था। आज दूसरे कार्यकाल का पहला वर्ष पूर्ण हो चुका है। चीन के सम्मुख इस बैंड की प्रस्तुति सम्भवतः समाप्त हो चुकी है, और समय चक्र का पहिया उतार पर है। गलवान में ब्रांड को सबसे बड़ा लगा बट्टा लगा है... अतुलनीय विदेश नीति का।
दरअसल नोटबन्दी के बाद से अर्थव्यवस्था की दुरावस्था आम भारतीय महसूस करने लगा था। तमाम आंकड़ाबन्दी, दावों और भाषणों के बावजूद जेब के खाली होने का अहसास हर किसी को हो रहा था। जीएसटी के अटपटे क्रियान्वयन, राजस्व के बंटवारे के एकपक्षीय प्रावधानों के बाद रही सही आर्थिक उम्मीदें भी तिरोहित हुई। मगर देश के लिए त्याग का आव्हान को जनता ने सुना। माना कि कुछ बड़ा होने वाला है। और फिर जी अभी भरा भी नही था। ऐसे में वैश्विक मंदी ने ब्रांड मोदी को एक अवसर देने का बहाना भी दे दिया।
जी इसलिए नही भरा था, विदेशों में डंका बजने की गूंज जनमानस के कानों में गूंज रही थी। वो सुखद, गर्व से भरा अहसास जो जो बड़े बड़े आयोजनों, भव्य टेलीकास्ट और नयनाभिराम छवियों से जन्मा था। भारत के नेता का, नामचीन देशों के प्रमुखों के साथ कूटनीतिक मैत्री से इतर, निजी सम्बधों का चतुर प्रदर्शन छाप छोड़ने में कामयाब रहा। घरेलू असफलताएं नकार दी गयी। शायद यह उम्मीद थी कि ब्रांड मोदी अंततः स्थितियां सम्भाल लेगा। दुनिया आगे आकर उसका, याने भारत देश का साथ देगी।
गलवान में नियंत्रण रेखा से पीछे हटती फौजो ने इस अंतिम आशा को पलीता लगा दिया है। पन्द्रह दिनों से जारी तनातनी के दौरान किसी भी वैश्विक फोरम, या महत्त्वपूर्ण देश ने चीन को सीधे नही लताड़ा। 1962 में अमेरिका और 1971 में रूस की तरह खुला समर्थन देना तो दूर, चीन की हरकत के खिलाफ बयान तक नही दिए। विश्व पटल पर जितना अकेला भारत पिछले 15 दिनों में दिखाई दिया, वैसा आजाद भारत के इतिहास में नही दिखा है।
स्थितियां यह है कि इस पूरे दौर में भारत सरकार के मंत्री, पार्टी, पदाधिकारी नदारद दिखे। असल मे मोदी के वन मैन शो ने उनके लिए स्पेस छोड़ा ही नही था। नतीजा यही कि ब्रांड मोदी को बचाने के लिए स्केपगोट भी उपलब्ध नही। विदेश नीति के साथ राष्ट्र की सुरक्षा के मसले पर भी देश की आशाओं पर भी पानी फिरा है। 20 सैनिको की लाशें गिरने के बाद भी, प्रधानमंत्री का देश से यह कहना कि कोई अतिक्रमण नही हुआ, फ़ौज की शहादत को नकारने से कम नही था।
प्रधानमंत्री को इस टूटते मायाजाल का अहसास है। उद्बोधनों की उनकी शैली उनकी सामान्य ऊर्जा के विपरीत बुझी बुझी, थकी और निराश दिखी। लेह तक जाकर मोर्चे के सैनिको से न मिलना, और सैनिको को दिये उदबोधन में चीन का नाम तक न लेना, उनके बचे कार्यकाल में लौट लौट कर याद जाएंगी। यह आसानी से मिटने वाली स्मृतियां नही है।
सीएए के विरोध में बढ़ते प्रदर्शनों, और जनता में गहराते अविश्वाश के बीच कॅरोना ने एक वक्ती खिड़की उपलब्ध करवा दी थी। हिमालय पर निराशाजनक प्रदर्शन के बाद अब घरेलू मोर्चे पर हिमालय जैसी समस्याएं वापस मुह बाए खड़ी हैं। और प्रधानमंत्री के हाथ इस वक्त खाली हैं।
खाली खजाने, गिरती लोकप्रियता, दिशाहीन ब्यूरोक्रेसी के बाद घटते हुए अंतरास्ट्रीय रुतबे के बीच आशा की किरण फिलहाल कहीं नही दिखती। ऐसे में चार साल के लम्बे अरसे तक, 2014 के मोदी चिंघाड़ रहे मोदी की इस प्रेतछाया को ढोने को देश, और 2020 के मोदी खुद अभिशप्त है। डंके सुनाई नही दे रहे। बैंड का क्रेसेंडो धीमा हो रहा है। पीक इज ओवर।
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