विकास दुबे के साम्राज्य का अंत और प्रकाश झा की फिल्म अपहरण का वो कभी न भूलने वाला दृश्य!
- मनीष सिंह
प्रकाश झा की मूवी आयी थी- “अपहरण”. एक गाँधीवादी फ्रीडम फाइटर का बेटा अपराधी बन जाता है. सबसे बड़ा गैंग्स्टर, मगर अब कानून पीछे है, संरक्षक खिलाफ हो चुके हैं। मौत सर पर है
-"हाँ बेटा, तुम्हारी याद आ रही थी"
-बेटा विव्हल हो जाता है "कितना देर कर दिये बाबूजी.. आप पहले कभी...!!"
-"गलती हो गयी न बेटा, उसी की तो सजा भुगत रहे हैं"
बेटा बाप का हाथ पकड़ लेता है-“ मगर हम का करें बाबूजी, कौन सा सजा भुगत लें की सारा किया मिट जाये हमारा... साफ हो जाये जिन्दगी का सलेट बाबूजी..” आंसू पोंछता है-“ एक बार हमको अहसास दिया होता .. तो इतना दूर थोड़ी न आते हम ..” बैठकर जार जार रोने लगता है “हम का करें?? .. हम का करें???
ऊत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, कभी राजनैतिक चेतना और नेतृत्व का गढ़ थे। क्रांति और मुखालफत की भूमि के युवा जिस दौर में दाउद और छोटा राजन के गैंग के गुर्गे बन रहे थे, जब श्रीप्रकाश शुक्ला, मुन्ना बजरंगी अपने सुनहरे दौर में थे, उस दौर को दिखाती इस फिल्म का ये सीन रुला देता है.
युवाओ के भटकाव का दौर खत्म नही हुआ है। अपराध और उंसके राजनीतिक सरंक्षण ने एक चारागाह खड़ा कर दिया है जिससे होकर अमीरी और ताकत का शार्टकट गुजरता है। इससे निकल कर कुछ बाहुबली विधानसभा और सन्सद तक जरूर गए है, मगर ज्यादातर का जीवन अपराध की अंधेरी गलियों और जेल की कोठरियों के बीच खत्म हो जाता है। जाति और धर्म में बंटे इस समाज मे क्राइम का रास्ता धर्मनिरपेक्ष है, हर युवा के लिए खुला द्वार है।
इसलिए अपहरण बंद नही हुआ है, बल्कि हिंदी पट्टी के युवा ने अब देश का अपहरण कर लिया है। संसद में बहुमत का आधा इन अभिशप्त राज्यों से आता है। भटके, गरीब, कुंठित, बेरोजगार, और वर्थलेस होने की हीनता से ग्रस्त लोगो ने धर्म और देश और दबंगई की पताका थाम रखी है। तमाम बेवकूफियो को सडको पर फैलाते हैं, और थोकबन्द वोट करते हैं। सत्ता का संरक्षण इन्हें ताकत का नशीला अहसास दे रहा है।
मूढ़ता से सत्ता और सत्ता से मूढ़ता- के प्रयोग की लेबोरेट्री का चूहा बन चुके हिंदी पट्टी के अधिकांश युवा, अब चाहे हिन्दू हो या मुस्लमान, हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की जड़े कुतर रहे हैं। ये भयभीत रहने और नफरत करने और दादागिरि के इतने ट्रेंड हो गये हैं, कि हमला करने या प्रतिक्रिया के अग्रिम हमले के लिए सदा उतारू रहते हैं। मध्ययुग के कबायली लड़ाको की तरह नींद में भी हथियार तानकर सोते हैं। घोड़ा कब दब जाए, ठिकाना नही।
नशा और एड्रीनेलिन फटने पर सिवाय विनाश और पछतावे के, इन्हें कुछ नही मिलेगा। मगर अपहृत हिंदुस्तान भी इनके साथ बर्बाद होगा। हिंदी पट्टी के ये “अभिशप्त युवा” हैं- जैसा रविश कुमार ने कहना शुरू किया है।
रोकने वाला कौन है? समाज, पुलिस, सरकार ..? नही सम्भव नही है। जिन्हें उनके बापों ने नहीं रोका, माताओं ने धर्म और जात का सैनिक बनने को प्रोत्साहित किया, बाहुबली कहलाने का आनंद लिया, तो किसी और की जिम्मेदारी क्यों मानी जाये।
बाबूजी जार जार रोते बेटे के आंसू पोंछते है “कोई बात नहीं बेटा, तू जैसा भी है , मेरा है। और सुन.. पश्चाताप मत कर, हो सके तो प्रायश्चित कर"। बेटा बात गांठ बांध लेता है. जाकर अपने पोलिटिकल बॉस को मार देता है, पुलिस बेटे को गोली मार देती है. बाप की पहनाई शाल उड़कर गिरती है, कफ़न हो जाती है।
अंतिम सीन में बाप मुर्दाघर में दस्तखत करता है. बेटे की लाश की रिलीज लेनी है. लाश के माथे पर हाथ फेरता है. वो रोता नही, शक्ल देखकर मै रो पड़ता हूँ.
फ्रेम में जलती हुई चिता है .. और अकेला बाप
फिल्म खत्म होती है.
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