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Saturday, July 11, 2020

अपराधी-पुलिस गठजोड़ और मुखबिरी एक नहीं, हर थाने की बात है, कहीं भी देख लीजिए !



- समीरात्मज मिश्र
'विकास दुबे का जो भी आपराधिक इतिहास दिख रहा है, उससे कम से कम कानपुर ज़िले की पुलिस तो वाकिफ़ रही ही होगी. नहीं तो चौबेपुर थाने की पुलिस को तो ज़रूर सब कुछ पता रहा होगा क्योंकि वहीं उनके ख़िलाफ़ एक दो नहीं बल्कि साठ एफ़आईआर दर्ज हुई हैं. विकास दुबे के पास इतने असलहे और गोला-बारूद थे कि पूरा घर इन्हीं सब से भरा हुआ था (ऐसा पुलिस का कहना है), इसीलिए घर को ज़मींदोज़ करना पड़ा. लेकिन तीन जुलाई से पहले पुलिस को यह सब मालूम नहीं था. धीरे-धीरे सारी बातें पता लग रही हैं.

इन्हीं सब मुद्दों पर एक वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर से चर्चा हो रही थी तो इन ख़बरों पर वो हँसने लगे. मैंने पूछा हँस क्यों रहे हैं? तो उनका जवाब था, “बताया ऐसे जा रहा है जैसे कोई बहुत दुर्लभ तथ्य हो और इससे पहले गठजोड़, मुखबिरी, फ़रार जैसी बातें सुनी ही न गई हों. दरअसल, ये किसी एक थाने की नहीं, हर थाने की बात है. कहीं भी देख लीजिए. चौबेपुर थाने में इतना बड़ा कांड हो गया तो पता चल गया, बाक़ी सब अपनी गति से चल रहा है.”

क्राइम रिपोर्टर महोदय से तमाम जानकारियां मिलीं. बहरहाल, पुलिस की सक्रियता और क़ाबिलियत तो इसी में दिख रही है कि विकास दुबे पर घोषित इनाम तीन दिन में 25 हज़ार रुपये से बढ़कर एक लाख रुपये तक पहुंच गया है लेकिन विकास दुबे की तलाश में लगीं दर्जनों टीमों को उसके बारे में अब तक कोई सुराग नहीं मिल सका है. ख़ैर, पुलिस और एसटीएफ़ अपना काम कर रही हैं. 

सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि दर्जनों मुक़दमों का आरोप धारण किए हुए व्यक्ति यदि अदालत से दोषी साबित नहीं हुए फिर भी क्या उनकी आपराधिक कुंडली का सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण नहीं होना चाहिए? क्या ऐसे लोगों को तब तक विशिष्ट स्थान मिलते रहना चाहिए जब तक कि अपराध साबित न हो जाए? लेकिन ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा. अपराध साबित होने के इंतज़ार में ऐसे अपराधियों से न जाने कितने अपराध होते रहेंगे और लोग भुगतते रहेंगे. कुछ दिन तक यह मुद्दा भी गरम रहेगा और उसके बाद सब लोग वैसे ही भूल जाएंगे जैसे कुंडा में डीएसपी ज़ियाउल हक़ की हत्या भूल गए हैं, जवाहर बाग कांड में मुकुल द्विवेदी की हत्या भूल गए और बुलंदशहर में सुबोध कुमार सिंह की हत्या भूल गए हैं.

इस बात में भी ज़रा भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विकास दुबे यदि विधानसभा-लोकसभा का चुनाव लड़कर माननीय बन गए होते तो उनके ख़िलाफ़ लगे इन दर्जनों मुक़दमों को ख़त्म करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई होती, ये मुक़दमे राजनीति से प्रेरित बताए जाने लगते और फिर धीरे-धीरे ये सारे मुक़दमे ख़त्म भी हो गए होते. हां, ये ज़रूर है कि विकास दुबे के संस्कार न बदलते बल्कि वो आगे भी वैसे ही बने रहते जैसे कि मुक़दमे दर्ज होते वक़्त थे. (बात सिर्फ़ विकास दुबे की ही नहीं है, उनके जैसे तमाम लोगों की है. बहुत से लोग इस प्रक्रिया की बैतरणी को पार कर चुके हैं और बहुत से लोग पार करने के प्रयास में हैं.)

पुलिस सिस्टम के तो कहने ही क्या? आम जनता के साथ उनका जो व्यवहार होता है, वह प्रवृत्ति अपने घर के भीतर भी क़ायम रहती है जो कि बहुत स्वाभाविक भी है. शारीरिक और क़ानूनी प्रशिक्षण के साथ जब तक भर्ती होने वाले रंगरूटों और अफ़सरों को इस तरह की नैतिक शिक्षा नहीं दी जाएगी और इसे आत्मसात करने पर ज़ोर नहीं दिया जाएगा, तब तक ये होता ही रहेगा.

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