मनरेगा के जरिये ग्राम प्रधान ऐसे करते हैं भ्रष्टाचार और जॉब कार्डधारक मजदूरों का शोषण
- तेजभान तेज
गांव में मनरेगा योजना के तहत जॉब कार्डधारक मजदूरों को तब पता चलता है, जब उनके खाते में पैसे आ जाते हैं। गांव का प्रधान उन्हें एक दिन पहले बताता है कि तुम्हारे खाते में पैसे डाले गए हैं, कल उसे उतारने के लिए बैंक चलना है। मजदूर अपने खाते से पैसे उतार कर प्रधान को देते हैं और बदले में प्रधान उसे एक हजार रूपए पर सौ रुपए के हिसाब से जोड़कर देता है। जैसे पांच हजार पर पांच सौ रुपए। यदि प्रधान बहुत ईमानदार हुआ तो ! वरना उसे 10-20 देकर ही टरका देता है।
कई बार तो 10-10 हजार रुपए उतारने पर भी मजदूरों को 100 रुपए में ही निपटा दिया जाता है। और अधिक पैसे मांगने पर प्रधान कहता है कि काम तो किया नहीं, फिर पैसे किसलिए ! जबकि सच्चाई यह है कि प्रधान खुद ही काम नहीं देता है। काम मांगने पर कहता है कि काम नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि जब काम नहीं है तो मजदूरों के खाते में पैसे आए कहां से ? अब तो बैंक की लघु शाखा वाले खुद ही अंगूठा लगाने वाली मशीन लेकर गांवों में आ जाते हैं इसलिए बैंक जाने से भी छुटकारा मिल गया है। यदि प्रधान का वश चलता तो मजदूरों का अंगूठा काटकर अपने पास ही रख लेते।
गांव के ही मजदूर अंकित ने बताया कि उसके खाते में अभी 5000 रुपए आए हैं। इतने ही पैसे उसकी मां और पिताजी के खाते में भी आए हैं। यानी कुल मिलाकर 15000 रुपए। इन लोगों को उसमें से 1500 रुपए मिलेंगे। बाकी के पैसे प्रधान ले लेंगे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अंकित और उसके माता-पिता को भी नहीं पता कि ये जो पैसे उनके खाते में आए हैं, उसके बदले में उन्होंने काम कब और कहां किया था। और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, लगभग हर महीने उनके खाते में कुछ ना कुछ पैसे आते रहते हैं, जिसके काम के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता होता है। लेकिन सरकारी आंकड़ों में इनके नाम दर्ज हो रहे हैं। ऐसे ही सैकड़ों लोग गांव में हैं, जो प्रधान के इस नेक काम में हाथ बंटाते हैं। जब भी कोई कुछ जानने-समझने की जुर्रत करता है, तो अगले महीने से उसके खाते में पैसे आने बंद हो जाते हैं।
नरेगा की वेबसाइट पर ऑनलाइन देखें तो गांव की तस्वीर अलग ही दिखती है। यहां बहुत सारे काम दिखते हैं। लगता है कि हमारा गांव विकसित गांव की श्रेणी में आ गया है। लेकिन ज़मीन पर पोखरी-पोखरा, नाली, खडंजा, चकरोड सब कुछ नदारद है। जो थोड़े-बहुत काम कराए जाते हैं, उन्हें भी ज़्यादातर जेसीबी से करा लिए जाते हैं और मजदूरों के खाते से पैसे निकालकर अपनी जेबें भर ली जाती हैं। कोरोना वायरस के खतरे से निपटने के लिए गांव को सेनेटाइज करने, लोगों को मास्क और साबुन बांटने के लिए जो पैसे आए थे, वो भी सब गायब हो गए। गांव वालों ने बताया कि सिर्फ एक दिन कुछ लोगों को साबुन भर बांटे गए थे। वो भी पूरे गांव में नहीं। बस कुछ ही लोगों को। बाकी बचे पैसों से प्रधान अपने लिए जमीन और गाड़ी खरीदते हैं। यह किसी एक गांव की घटना नहीं है। ज़्यादातर गांवों में इसी तरह से काम कराया जा रहा है।
गांव का प्रधान उन्हीं जॉब कार्ड धारकों के खाते में पैसे डालता है, जो उसका बहुत खास होता है या बहुत कमजोर तबके का होता है। जो लोग उससे सवाल-जवाब कर सकते हैं उनको ना तो काम दिया जाता है, ना ही उनका जॉब कार्ड बनाया जाता है। प्रधान के काम में किसी तरह की कोई पारदर्शिता नहीं होती है। पूछने पर कुछ बताया भी नहीं जाता है। सरकार हर साल जैसे-जैसे नरेगा के लिए बजट बढ़ा रही है, वैसे-वैसे इनके लूट-खसोट का दायरा भी बढ़ता जा रहा है।
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