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Saturday, July 11, 2020

विकास दुबे एनकाउंटर: कानपुर पुलिस का बदला तो पूरा हुआ, लेकिन असल चुनौती अभी बाकी है



-विजय शंकर सिंह
कानून के हांथ बहुत लंबे होते हैं। कभी कभी इतने लंबे कि, कब किसकी गर्दन के इर्दगिर्द आ जाएं पता ही नहीं चलता है। एक सड़क दुर्घटना, घायल मुल्जिम द्वारा भागने की कोशिश और फिर उसे पकड़ने की कोशिश, पुलिस पर हमला, पुलिस का आत्मरक्षा में फायर करना और फिर हमलावर का मारा जाना। विकास दुबे को लेकर चल रही सनसनी का यही अंत रहा। 

महाकाल के मंदिर से गिरफ्तार हो कर बर्रा के पास हुयी मुठभेड़ तक यह सनसनी लगातार चलती रही और आज जब मैं सो कर उठा तो बारिश हो रही है, और सोशल मीडिया पर विकास दुबे के मारे जाने की खबरें भी बरस रही हैं। यह खबर हैरान नहीं करती है क्योंकि यह अप्रत्याशित तो नहीं ही थी। प्याले और होंठ के बीच की दूरी कितनी भी कम हो, एक अघटित की संभावना सदैव बनी ही रहती है। 

विकास दुबे खादी, खाकी और अपराधी इन तीनों के अपावन गठबंधन का नतीजा है और कोई पहला या अकेला उदाहरण भी यह नहीं है । शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे विकास दुबे द्वारा 8 पुलिसकर्मियों की दुःखद हत्या के बाद, उससे सहानुभूति शेष रही हो, पर यह एक अपराधी का खात्मा है, सिस्टम में घुसे अपराध के वायरस का अंत नहीं है। विकास दुबे मारा गया है, उसके अपराध कर्मो ने उसे यहां तक पहुंचाया, पर जिस अपराधीकरण के वायरस के दम पर वह, पनपा और पला बढ़ा, वह वायरस अब भी ज़िंदा है, सुरक्षित है और अपना संक्रमण लगातार फैला रहा है। असल चुनौती यही संक्रमण है जो शेष जो हैं, वे तो उसी संक्रमण के नतीजे हैं। 

इस प्रकरण को समाप्त नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि इसे एक उदाहरण समझ कर उस संक्रमण से दूर रहने का उपाय विभाग को करना चाहिए। राजनीति में अपराधीकरण को रोका थामा जाय, यह तो फिलहाल पुलिस के लिये मुश्किल है लेकिन पुलिस तंत्र कैसे अपराधी और आपराधिक मानसिकता की राजनीति से बचा कर रखा जाय, यह तो विभाग के नेतृत्व को ही देखना होगा। 8 पुलिसकर्मियों की मुठभेड़ के दौरान हुयी शहादत, पुलिस की रणनीतिक विफलता, और पुलिस में बदमाशों की घुसपैठ और हमारे मुखबिर तंत्र जिसे हम, क्रिमिनल इंटेलिजेंस सिस्टम कहते हैं, की विफलता है। क्या अब हम फिर से, कोई फुंसी, कैंसर का थर्ड या फोर्थ स्टेज न बन जांय, को रोक सकने के लिये तैयार हैं ? 

कहा जा रहा है कि सारे राज विकास दुबे के मारे जाने के बाद दफन हो गए । यह बात भी इस साफ सुथरी और सीधी मुठभेड़ की तरह मासूम है कि, कौन से राज पोशीदा थे जो दफन हो गए ? हां एक राज ज़रूर रहस्य ही बना रहा कि उस काली रात को जब डीएसपी देवेन्द्र मिश्र अपने 7 साथियों सहित उस मुठभेड़ में मारे गए तो असल मे हुआ क्या था ? विकास दुबे को पुलिस के रेड की खबर किसने दी थी और फिर खबर नियमित दी जा रही थी या यही ब्रेकिंग न्यूज़ थी कि उसके यहां छापा पड़ने वाला है ? इस राज़ का खुलना इसलिए भी ज़रूरी है कि यह एक हत्यारे का अंत है न कि अपराध का पटाक्षेप। 

रहा सवाल राजनीति में घुसे हुए अपराधीकरण के राज़ के पोशीदा रह जाने का तो वह राज़ अब भी राज़ नहीं है और कल भी राज़ नहीं था। विकास दुबे अगर ज़िंदा भी रहता तो क्या आप समझते हैं कि वह सब बता देता ? वह बिल्कुल नहीं मुंह खोलता और जिन परिस्थितियों में वह पकड़ा गया था उन परिस्थितियों में वह अपने राजनीतिक राजदारों का राज़ तो नहीं ही खोलता। यह तो पुलिस को अन्य सुबूतों, सूचनाओं और उसके सहयोगियों से ही पता करना पड़ता। क्या सरकार केवल विकास दुबे के राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यापारिक सम्पर्को की जांच के लिये भी कोई दल गठित करेगी या इसे ही इतिश्री समझ लिया जाएगा ? 

विकास के सारे आर्थिक और राजनीतिक सहयोगी अभी जिंदा हैं। विकास के फोन नम्बर से उन सबके सम्पर्क मिल सकते है। मुखबिर तंत्र से सारी जानकारियां मिल सकती हैं। उनके अचानक सम्पन्न हो जाने के सुबूत भी मिल सकते हैं। राजनीति में कौन कौन विकास दुबे के प्रश्रय दाता हैं यह भी कोई छुपी बात नहीं है। पर क्या हमारा पोलिटिकल सिस्टम सच मे यह सब राज़ और राजनीति, पुलिस तथा अपराधियों के गठजोड़ के बारे में जानना चाहता है और अपराधीकरण के इस वायरस से निजात पाना चाहता है या वह केवल 8 पुलिसकर्मियों की शहादत का बदला ही लेकर यह पत्रावली बंद कर देना चाहता है ? बदला तो पूरा हुआ पर अभी असल समस्या और चुनौती शेष है। 

यह एक उचित अवसर है कि सीआईडी की एक टीम गठित कर के 8 पुलिसजन की हत्या की रात और उसके पहले जो कुछ भी चौबेपुर थाने से लेकर सीओ बिल्हौर के कार्यालय से होते हुए एसएसपी ऑफिस तक हुआ है, उसकी जांच की जाय। एसटीएफ को जिस काम के लिये यह केस सौंवा गया था वह काम एसटीएफ ने पूरा कर दिया और अब उसकी भूमिका यहीं खत्म हो जाती है। विकास दुबे के अधिकतर नज़दीकी बदमाश मारे जा चुके हैं। जो थोड़े बहुत होंगे वे स्थानीय स्तर से देख लिए जाएंगे। अब ज़रूरी है कि उसके गिरोह का पुलिस, प्रशासनिक और राजनीतिक क्षेत्रो में जो घुसपैठ है उसका पर्दाफाश किया जाय जिससे यह गठजोड़ जो समाज मे आपराधिक वातावरण का काफी हद तक जिम्मेदार है वह टूटे। 

माफिया का जिस दिन आर्थिक साम्राज्य दरकने लगेगा उसी दिन से अपराधियों का मनोबल भी टूटता है। अपराध से यकायक बढ़ती हुयी संपन्नता, और अफसरों एवं राजपुरुषों की नजदीकियां युवाओं को इस तरह का एडवेंचर करने के लिये बहुत ही ललचाती हैं। गाड़ी पलट मार्का मुठभेड़ों से जनता खुश होती है क्योंकि वह शांति से जीना चाहती है, गुंडों बदमाशों से मुक्ति चाहती है। यह मुक्ति चाहे उसे न्यायिक रास्ते से मिले या न्याय के इतर मार्ग से। यह ऐसे ही है जैसे कोई बीमार एलोपैथी से लेकर नेचुरोपैथी तक की तमाम दवाइयां अपने को स्वस्थ रखने के लिये आजमाता है, कि न जाने कौन सी दवा काम कर जाए ! पर ऐसी मुठभेड़ों पर हर्ष प्रदर्शन, न्यायिक व्यवस्था पर जनता के बढ़ते अविश्वास का ही परिणाम है।

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