Feature 2

Saturday, July 11, 2020

वो कौन हैं जो चाहते थे विकास दुबे जिंदा न रहे, किसके लिए मुसीबत बन सकता था विकास दुबे?


- रोहित देवेंद्र शांडिल्य
इसमें कोई शक नहीं है कि विकास दुबे की पुलिस कस्टडी में हत्या की गई. शक इसमें भी नहीं है कि वह अपराधी था। शक सिर्फ इस बात में है कि क्या विकास दुबे इस समय यूपी का ऐसा अपराधी था जिसे हर हाल में मार डालना ही अंतिम विकल्प था। उसका जिंदा रहना यूपी की कानून व्यवस्‍था ही नहीं पूरी मानव सभ्यता के‌ अस्तित्व के लिए खतरा था? 

अपराध की दुनिया से सीधा वास्ता ना रखने वाले लोगों के लिए एक सप्ताह पहले विकास दुबे कोई नहीं था। ना उसे लोग नाम से जानते थे ना ही काम से और ना ही तस्वीरों से। एक रात जब पुलिस कर्मियों के मरने की खबर आई तो किसी दूसरे विकास की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं। किसी एड्रेस प्रूफ में लगी उसकी धुंधली सी तस्वीर ही मीडिया के पास थी। कानपुर और कानपुर देहात के अलावा विकास को जानने वाले उंगलियों में गिनने भरके थे। आप खुद से पूछिए जिस विकास के एनकाउंटर के लिए आप बेकरार थे उसे आप आठ दिन पहले जानते भी थे क्या?  फिर ऐसा क्या हुआ कि एक अपराधी जिसके ऊपर एक सप्ताह पहले तक पुलिस ने गैंगस्टर एक्ट नहीं लगाया हुआ था उसे गिरफ्तार करने के लिए भारी पुलिस दल वहां अचानक पहुंचा। इसमें भी शक नहीं है कि उसकी मुखबिरी ना होती तो उसी रात उसको मार डालने के इंतजाम थे।

शक इसमें भी नहीं कि उस रात जो कुछ जो भी हुआ वह गलत था। पुलिस कर्मियों की हत्याएं कष्टकारी थीं। लेकिन न्याय की व्यवस्‍था क्या कहती है?  जब एक साथ कई मासूम लोगों को डायनामाइट से उड़ा देने वालों को जेल में रखा जाता है। उनकी सुनवाई होती है फिर उन्हें सजा होती है। तो फिर यह अधिकार विकास दुबे को क्यों नहीं मिलना चाहिए था? विकास दुबे को भारत की न्याय प्रणाली और संविधान में मिले अधिकार एक झटके में इसलिए खत्म किए जा सकते हैं क्योंकि कोई चाहता है कि अब वह जिंदा ना रहे? उसका जिंदा रहना किसी के लिए मुसीबत बढ़ते जाना जैसा बन गया था? 

या विकास को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसके आदमियों ने पुलिस वालों की हत्याएं की थीं। तो यदि कोई अपराधी किसी आम आदमी की हत्या करता है तो उसके ऊपर अपराध कोर्ट साबित करती है लेकिन जब अपराध पुलिस के साथ होता है तो यह नियम बदल जाते हैं। पुलिस की भी नियत देखिए। उसकी निगाह में एक जान की कीमत तब महत्वपूर्ण है जब हत्या पुलिस वाले की हो। ‌मरने वाला यदि किसी दूसरे पेशे से हो तब पुलिस के लिए खास चिंता का विषय नहीं है। आप या तो पुलिस में भर्ती हो जाइए यदि ऐसा नहीं कर पाते हैं तो फिर आपकी जान बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। 

रिश्वत लेकर बनाए गए ओवरब्रिज के गिरने से एक झटके में दर्जनों लोग मर जाते हैं। जिनके घर के लोग मरते हैं वह बंदूक लेकर किससे बदला लेने निकले? पुलिस सजेस्ट करे कि वह किसको मारें? उनके पास रिवॉल्वर नहीं होतीं या बदला लेने का यह अधिकार पुलिस के पास होता है। पुलिस के जिस कृत्य को आप अपराधी के मार डालने से जस्टीफाई कर रहे हैं जरा उसकी नियम टटोलकर देखिए। 

सरकार से सवाल पूछना या उसके किसी कृत्य पर बात करना फैशन के बाहर है। आईटी सेल तय करता है कि समाज किस दिशा में सोचे। आईटी सेल की सोच के अनुसार ही मीडिया अपनी थीम तय करता है। आईटी सेल इस हत्या को जस्टीफाई कर रहा है तो मीडिया का फर्ज है कि वह भी इसे जस्टीफाई करे। मैं टीवी नहीं देखता लेकिन मीडिया इस घटना पर प्रश्न खड़ा करने के बजाय योगी की सख्त इमेज से जोड़कर उस पर कविताएं लिख रहा होगा। 'ले लिया बदला' या 'चमकता प्रदेश थर्राते अपराधी' जैसे थीम वाले विशेष प्रोग्राम चल रहे होंगे। 

वह समय गया जब मीडिया किसी घटना पर नीर झीर का विवेक करता था। वह गलत और सही को चुनने में आपकी मदद करता था। अब वह दौर नहीं है। यह आपको सोचना है कि पुलिस और सरकारों के मुंह में जब किसी की हत्या करने का खून लग चुका हो तो यह आपके लिए किस हद तक नुकसान देय है। कमजोर न्यायपालिका और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया आपका भला कर सकती हैं या बुरा ये बात आने वाले दो दिन के 'स्मॉल लॉकडाउन' में आप सोच सकते हैं...

No comments:

Post a Comment

Popular

CONTACT US

VOICE OF MEDIA
is a news, views, analysis, opinion, and knowledge venture, launched in 2012. Basically, we are focused on media, but we also cover various issues, like social, political, economic, etc. We welcome articles, open letters, film/TV series/book reviews, and comments/opinions from readers, institutions, organizations, and fellow journalists. Please send your submission to:
edit.vom@gmail.com

TOP NEWS