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Tuesday, July 7, 2020

सुसाइड या मर्डर: एम्स की चारदीवारी से बाहर आ पाएगा पत्रकार तरुण सिसौदिया की मौत का सच?


- गिरीश मालवीय
दिल्ली के पत्रकार तरुण सिसौदिया की मौत के मामले में यह शक करने की पर्याप्त गुंजाइश है कि यह आत्महत्या नही हत्या है. तरुण दैनिक भास्कर अखबार में हेल्थ रिपोर्टर थे. वह एम्स में दो हफ्ते से अधिक से इलाज करवा रहे थे. बताया जा रहा है कि उनके इलाज में लापरवाही बरती जा रही थी. लापरवाही बरतने का मामला स्वास्थ्य मंत्रालय तक भी पहुंचा था और ट्रामा सेंटर से रिपोर्ट मांगी गई थी. सम्भव है इस बात से एम्स प्रशासन के कतिपय तत्व चिढ़े हुए हो?

बिल्डिंग की चौथी मंजिल से कूदने की घटना दोपहर लगभग दो बजे हुई है. आप ही बताइये कि एक मरीज, जो पिछले कई दिनों से कोविड संक्रमण की वजह से आईसीयू में एडमिट है, जिसे सांस लेने में दिक्कत है, वह पहली मंजिल से चौथी मंजिल तक शिफ्टिंग के दौरान भाग कर कैसे पहुंच जाता है? जबकि हॉस्पिटल अटेंडेंट उस तक भी पहुंच नहीं पाये, एक बीमार मरीज ने विंडो तोड़ दिया, और हॉस्पिटल अटेंडेंट को पता भी नहीं चला, यह कैसे संभव है? कोविड के चलते तरुण को ऐसे वार्ड में शिफ्ट किया गया जहां उनके पास मोबाइल फोन नहीं था और वे कट गए. 

तरुण अपने परिवार से बात करवाने का भी लगातार आग्रह कर रहे थे, जो करवाई नहीं जा रही थी. उनके कुछ मित्रों ने उनको ऑक्सीजन नहीं उपलब्ध होने का मामल भी उठाया है. लेकिन एम्स की चुप्पी ने गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है। एक पत्रकार होने के कारण वे पत्रकारों के वाट्सएप ग्रुप में शामिल थे और अस्पताल के अंदर की अव्यवस्था व दिक्कतों को शेयर कर देते थे या अपने मित्रों को बता देते थे. इससे अस्पताल प्रशासन पर सवाल उठ जाता था. 

पुलिस कह रही है कि पत्रकार सोमवार दोपहर को चौथी मंजिल पर टीसी-1 वार्ड से भागने लगा. नर्सिंग अर्दली पकड़ने के लिए उसके पीछे भागे. वह पकड़ पाते, उससे पहले ही उसने शीशा तोड़ा और चौथी मंजिल से कूद गया. एक 37 वर्षीय पत्रकार जो दो महीने पहले ही बेटी का पिता बना हो आत्महत्या के खिलाफ खुद अखबार में लेख लिखता हो, सिर्फ कोविड संक्रमण या नौकरी जाने की अपुष्ट सूचना के आधार पर हॉस्पिटल की चौथी मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ले, यह हजम होने वाली बात नही है. 

तरुण सिसोदिया का एक वाट्सअप चैट  भी वायरल है तरुण के साथी पत्रकारों के मुताबिक, इस चैट में तरुण ने अपनी हत्या की आशंका जताई थी। कहा जा रहा है कि उन्होंने एम्स में इलाज को लेकर कुछ शिकायतें भी की थीं। स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने इस मामले की जाँच के आदेश जरूर दिए हैं, लेकिन सारे जाँच करने वाले एम्स प्रशासन से ही हैं, इसलिए मुश्किल है कि वे सही रिपोर्ट देंगे. सरकार को इस मामले में स्वतंत्र रूप से न्यायिक जाँच का आदेश देना चाहिए.

मनरेगा के जरिये ग्राम प्रधान ऐसे करते हैं भ्रष्टाचार और जॉब कार्डधारक मजदूरों का शोषण



- तेजभान तेज
गांव में मनरेगा योजना के तहत जॉब कार्डधारक मजदूरों को तब पता चलता है, जब उनके खाते में पैसे आ जाते हैं। गांव का प्रधान उन्हें एक दिन पहले बताता है कि तुम्हारे खाते में पैसे डाले गए हैं, कल उसे उतारने के लिए बैंक चलना है। मजदूर अपने खाते से पैसे उतार कर प्रधान को देते हैं और बदले में प्रधान उसे एक हजार रूपए पर सौ रुपए के हिसाब से जोड़कर देता है। जैसे पांच हजार पर पांच सौ रुपए। यदि प्रधान बहुत ईमानदार हुआ तो ! वरना उसे 10-20 देकर ही टरका देता है। 

कई बार तो 10-10 हजार रुपए उतारने पर भी मजदूरों को 100 रुपए में ही निपटा दिया जाता है। और अधिक पैसे मांगने पर प्रधान कहता है कि काम तो किया नहीं, फिर पैसे किसलिए ! जबकि सच्चाई यह है कि प्रधान खुद ही काम नहीं देता है। काम मांगने पर कहता है कि काम नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि जब काम नहीं है तो मजदूरों के खाते में पैसे आए कहां से ? अब तो बैंक की लघु शाखा वाले खुद ही अंगूठा लगाने वाली मशीन लेकर गांवों में आ जाते हैं इसलिए बैंक जाने से भी छुटकारा मिल गया है। यदि प्रधान का वश चलता तो मजदूरों का अंगूठा काटकर अपने पास ही रख लेते।

गांव के ही मजदूर अंकित ने बताया कि उसके खाते में अभी 5000 रुपए आए हैं। इतने ही पैसे उसकी मां और पिताजी के खाते में भी आए हैं। यानी कुल मिलाकर 15000 रुपए। इन लोगों को उसमें से 1500 रुपए मिलेंगे। बाकी के पैसे प्रधान ले लेंगे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अंकित और उसके माता-पिता को भी नहीं पता कि ये जो पैसे उनके खाते में आए हैं, उसके बदले में उन्होंने काम कब और कहां किया था। और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, लगभग हर महीने उनके खाते में कुछ ना कुछ पैसे आते रहते हैं, जिसके काम के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता होता है। लेकिन सरकारी आंकड़ों में इनके नाम दर्ज हो रहे हैं। ऐसे ही सैकड़ों लोग गांव में हैं, जो प्रधान के इस नेक काम में हाथ बंटाते हैं। जब भी कोई कुछ जानने-समझने की जुर्रत करता है, तो अगले महीने से उसके खाते में पैसे आने बंद हो जाते हैं।

नरेगा की वेबसाइट पर ऑनलाइन देखें तो गांव की तस्वीर अलग ही दिखती है। यहां बहुत सारे काम दिखते हैं। लगता है कि हमारा गांव विकसित गांव की श्रेणी में आ गया है। लेकिन ज़मीन पर पोखरी-पोखरा, नाली, खडंजा, चकरोड सब कुछ नदारद है। जो थोड़े-बहुत काम कराए जाते हैं, उन्हें भी ज़्यादातर जेसीबी से करा लिए जाते हैं और मजदूरों के खाते से पैसे निकालकर अपनी जेबें भर ली जाती हैं। कोरोना वायरस के खतरे से निपटने के लिए गांव को सेनेटाइज करने, लोगों को मास्क और साबुन बांटने के लिए जो पैसे आए थे, वो भी सब गायब हो गए। गांव वालों ने बताया कि सिर्फ एक दिन कुछ लोगों को साबुन भर बांटे गए थे। वो भी पूरे गांव में नहीं। बस कुछ ही लोगों को। बाकी बचे पैसों से प्रधान अपने लिए जमीन और गाड़ी खरीदते हैं। यह किसी एक गांव की घटना नहीं है। ज़्यादातर गांवों में इसी तरह से काम कराया जा रहा है।

गांव का प्रधान उन्हीं जॉब कार्ड धारकों के खाते में पैसे डालता है, जो उसका बहुत खास होता है या बहुत कमजोर तबके का होता है। जो लोग उससे सवाल-जवाब कर सकते हैं उनको ना तो काम दिया जाता है, ना ही उनका जॉब कार्ड बनाया जाता है। प्रधान के काम में किसी तरह की कोई पारदर्शिता नहीं होती है। पूछने पर कुछ बताया भी नहीं जाता है। सरकार हर साल जैसे-जैसे नरेगा के लिए बजट बढ़ा रही है, वैसे-वैसे इनके लूट-खसोट का दायरा भी बढ़ता जा रहा है।

Saturday, July 4, 2020

पहले रेलवे रोज़गार पैदा करती थी, अब बेरोज़गार पैदा कर रही है !



- रवीश कुमार 

रेलवे ने पिछली भर्ती के लोगों को ही पूरी तरह ज्वाइन नहीं कराया है। अब नई भर्तियों पर रोक लगा दी गई है। यही नहीं आउट सोर्सिंग के कारण नौकरियाँ ख़त्म की गई, अब उस आउटसोर्सिंग के स्टाफ़ भी कम किए जाएँगे। पहले रेलवे रोज़गार पैदा करती थी, अब बेरोज़गार पैदा कर रही है।

यह मोदी सरकार की लोकप्रियता और साहस ही है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के समय करोड़ों युवाओं को भर्ती के नाम पर दौड़ा दिया और आज तक पास किए हुए सभी छात्रों की ज्वाइनिंग नहीं पूरी हुई। अब बिहार चुनाव आ रहा है। चुनाव के सामने कोई सरकार रेलवे की भर्ती बंद करने का एलान नहीं कर सकती लेकिन युवाओं में अपनी लोकप्रियता का कुछ तो भरोसा होगा कि वह बोल कर उनके बीच आ रही है कि रेलवे में नौकरी नहीं देंगे। कांग्रेस ने रेलवे के निजीकरण का विरोध कर और भर्तियाँ बंद होने का विरोध कर अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारी है। किसी ने उसके इस विरोध को भाव नहीं दिया है। ये सभी नौजवान बिहार चुनाव में बीजेपी को ही वोट देंगे । इस वक्त युवाओं को झटका लगा होगा इसलिए बीजेपी के नेताओं को इनके लिए आवाज़ उठानी चाहिए। कम से कम इन्हें बहलाने फुसलाने के लिए ही सही। काउंसलिंग करें। राष्ट्र की प्रगति के सामने नौकरी कोई चीज़ नहीं है 


मेरा मानना है कि रेलवे के करोड़ों परीक्षार्थी सच्चाई देखें। रेलवे भर्ती की हालत में नहीं है। गोयल जी ने इतना विकास कर दिया कि पैसा ही ख़त्म हो गया। रेलवे सैलरी देने की हालत में नहीं होगी। कर्मचारियों के भत्ते काटे जा रहे हैं। अभी तक पेंशन में कटौती नहीं है पर भविष्य कौन जानता है? वैसे प्रार्थना कीजिए कि पेंशन की राशि को एडजस्ट करने की ज़रूरत न पड़े।पेंशनभोगी ही आगे आकर पेंशन कटवाएँ और रेलवे की मदद करें। 

कई लोगों ने कहा कि इस तरह से आरक्षण भी समाप्त हो गया। यह सही है। अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी जातियाँ और आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को भी आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। जब आपने निजीकरण और आउटसोर्सिंग को स्वीकार ही कर लिया तो फिर आपत्ति किस बात की? वरना आरक्षण के तहत जितनी बड़ी आबादी आती है, किसी सरकार की निजीकरण या भर्ती बंद करने की हिम्मत न होती। 

रेलवे की परीक्षा के लिए देश भर के करोड़ों नौजवान कड़ी मेहनत करते हैं। हमने बिहार चुनाव के दौरान देखा था कि आरा शहर में किस तरह ग्रुप बना कर लड़के परीक्षा की तैयारी करते हैं। अद्भुत दृश्य था। यूपी में भी गोरखपुर से लेकर ग़ाज़ीपुर के बेल्ट का नौजवान रेलवे की भर्ती परीक्षाओं में लगा रहता है। राजस्थान से भी पिछली बार देखा था कि किस तरह मीणा समाज हज़ारों अभ्यर्थियों की मदद कर रहा था। अद्भुत दृश्य था।आज करोड़ों लड़के लड़कियाँ उदास हो गए होंगे। समझता हूँ।

अब यह सरकार का फ़ैसला है। जिस तरह से आप कोयला खदानों के निजीकरण को लेकर चुप थे उसी तरह कोई और रेलवे के निजीकरण को लेकर चुप रहेगा। हमारी राजनीति चाहे सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की, निजीकरण को लेकर साफ़ नहीं बोलती है। बोलती भी होगी तो कोई इन विषयों पर ध्यान नहीं देता। दुख बस इतना है बिहार से लेकर देश के नौजवानों के लिए एक मौक़ा कम हो गया। लेकिन जब पिछली भर्ती पूरी नहीं हुई तो चुनाव के कारण कुछ निकल भी जाए तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? 

अब आप लोग ही रोज़गार को लेकर नए तरीक़े से सोचिए। मुझे मैसेज करने से क्या होगा। ऐसे फ़ैसले हो जाने के बाद बदलते नहीं है। सरकार नौकरी नहीं देगी। इस सत्य को जानते हुए आपको ही बदलना होगा। यही कह सकता हूँ कि नए अवसरों की तरफ़ देखिए। वैसे वहाँ भी कुछ नहीं है। लेकिन फिर भी। मैं राजनीति में नहीं हूँ । इसलिए आगे का रास्ता उनसे पूछें जिन्हें वोट देते हैं। युवा नेताओं से यही कहूँगा कि नौकरी के मसले को उठा कर भविष्य न बनाएँ । इससे दूर रहें। रोज़गार राजनीतिक मुद्दा नहीं रहा। 

बिहार से एक नौजवान ने एक तस्वीर के साथ पत्र लिखा है। उसकी मायूसी समझ आती है। काश रेलवे भर्ती बंद नहीं करती। सर, ये मंदिर की तस्वीर है, इसमें हिन्दू मुस्लिम सब ग्रुप में आते थे । टेस्ट सीरीज चलता था।वाक्य के अंत में "था" लगा हुआ है। इसे से समझ जाइए। रेलवे के बारे में न्यूज़ सुन कर सब रोकर अपने अपने घर चल गए।

हम बिहारियों की English कितनी मजबूत है ये आप भी जानते हैं एसएससी में जा नहीं सकते है। आर्मी के लिए age निकल चुकी है। बिहार पुलिस का क्या ही कहना। इसका कट ऑफ 80 से ज्यादा चल जाता है। ITI 2 साल का कोर्स 4 साल से ज्यादा हो गया अभी तक कंप्लीट नहीं हुआ एग्जाम हमेशा रद्द हो जाता है। प्राइवेट नौकरियां चली गई है, कहां जाऊं मैं अब!