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Wednesday, July 8, 2020

फूल और कांटे: 29 साल बाद अजय देवगन की फिल्म का ये पोस्टमार्टम आपको जरूर पसंद आएगा !

- सत्येंद्र सत्यार्थी
फूल और कांटे नामक फिल्म देख ली। मुझे इस फिल्म को देखने में 4 दिन लगे, हालाकि नल्ला हू और बरसात का मजा ले रहा पर फिर भी भयानक बारिश में भी चार दिन लग गया। यह फिल्म रिलीज़ हुई थी नवंबर 1991 में। फिल्म की कहानी को लिखा था इकबाल दुर्रानी ने और डायरेक्ट किया था कुकु कोहली ने। नेपोटाइज्म से फिल्मों में घुसे अजय देवगन की यह पहली फिल्म थी। यह फिल्म ने अपनी लागत से 4 गुना पैसा कमाया था। यह तो हो गई मोटी बात अब फिल्म की बात करते हैं।

पहला फेस :- इस फिल्म में बिल्कुल समझ नहीं आता कि अजय और पूजा कौन से डिग्री कॉलेज में पढ़ते हैं जहां उंडर ग्रेजुएशन के लौंडे लौंडिया इतने मैच्योर टाइप दिखते की चरस गांजा बेचते, और कॉलेज से निकलते ही शादी कर बच्चा जन लेते क्यों कि सामान्य स्नातक किसी भी ठीक स्टूडेंट की 20-21 साल में पूरी हो जाती । कास्ट सिस्टम जैसी चीज आड़े ही नहीं आती पता नहीं यह कॉलेज भारत में होता या सूर्य पर ।

उनके कॉलेज का एक बात और समझ नहीं आया कि आखिर कौन से प्रोफेसर ऐसे होते जो लड़के लड़कियों की सेटिंग करवाते, क्या भारत में ऐसा कोई कॉलेज है ? मेरी जानकारी के तो नहीं है । इस फिल्म में दिखाया गया कॉलेज बिल्कुल जो जीता वही सिकंदर के स्कूल या कॉलेज (आज तक समझ नहीं आया उसने स्कूल होता है या कॉलेज) की तरह ही है ।

दूसरा फेज:- इस फिल्म कॉलेज के अंदर जो छिछोरा पंती दिखाई गई है एक ज़ीरो कौड़ी कि है मतलब इतना वाहियात और जाहिलों टाइप का कैसे दिखाया जा सकता, दारूबाज, सुत्ता बाज, फेमिनाजिया आखिर इस फिल्म पर केस क्यों भी करती, इसमें लड़की को उपभोग की वस्तु की तरह दिखाया गया है और लड़की की तरफ लड़के का अप्रोच क्रिमिनल एक्ट में गिना जाता जैसे लड़की को बार बार फ्लाइंग किस देना, हॉस्टल में घुस उसके हर दीवार पर नाम के साथ आई लव यू लिखना इत्यादि, मुझे लगता है नब्बे में आयी ये फिल्म भारत के अशिक्षित समाज में अनेक अपराधों के लिए जिम्मेदार बनी होगी क्योंकि इसमें इस तरह का सीन डाला गया था जो हज़म नहीं होता। इस फिल्म में नारी को लेकर एक गलत चीज और दिखाई गई है बोली गई है वो मुझे समझ नहीं आती आखिर पुरुषों के पास ऐसा क्या होता जो महिलाएं नहीं देख सकती, इस फिल्म के एक सीन में ऐसा जोर देकर बोला गया है।

तीसरा फेज :- फिल्म में जो अपराध की दुनिया से जुड़े लोग हैं उनमें नागेश्वर, शंकरा, धनराज और अजय प्रमुख हैं, आप ने आज तक इस तरह के अपराधी नहीं देखे होंगे जो हमेशा टाई कोर्ट पैंट के साथ रहते एकदम वेल ड्रेस्ड, और उनके ड्रेसेस का रंग जूता सब एक सा होता है , इसके अलावा दो और अपराधी हैं एक शंकरा और एक नेता पर दोनों भिखारी टाइप दिखाए गए हैं। जबकि नागेश्वर को पानी पिला देते हैं मार मार कर। नागेश्वर को अंडर टेकर टाइप कर के दिखाने की नाकाम कोशिश की गई थी।

चौथा फेज:- अजय और नागेश्वर का पिता पुत्र बकचोड़ी, अजय हर जगह नागेश्वर का पीछा करता है ऐसा लगता है। नागेश्वर अलग ही टाइप का बकैत होता है अपने ही जाल में फस कर पिला जाता है। अजय भी एक तरह से लालची है अपने बाप की संपति का आखिर मालिक बन ही जाता है और सबसे ईमानदार अपराधी धनराज का खून कर देता है।

पांचवा फेज:- दो महीने का छोटा बच्चा जिसका नाम अजय पूजा मिलाकर गोपाल रखते हैं उसको अलग अलग सीन में अलग अलग दिखाया गया, एक सीन में उसके सर पर बाल दिखाया गया है आखिर मुझे कोई अंडा मार के बताए दो महीने के बच्चे के सर कर बाल होता क्या? वो दो महीने के बच्चा अपना नाम भी जनता है तभी तो नागेश्वर आखिरी में गोपाल गोपाल चिल्लाता हुआ जाता है मिल के अंदर। एक बाकैती और नहीं समझ आई कि आखिर इतने सभ्य अपराधी कैसे हो सकते जो दो महीने के बच्चे को हमेशा वेल मेंटेन वैसे ही रखते जैसे वो वेल ड्रेस्ड रहते । उसका हाग्ना मूतना कौन साफ करता है? यह फिल्म देखने के बाद से सोच कर मुंडी चकरा रहा है । 

छठवां और आखिरी फेज:- अजय पता कौन सी पढ़ाई करता है जो उसको बेस्ट स्टूडेंट का अवॉर्ड मिलता, अजय एक बेहतरीन फील्डर है जो लंबे लंबे डाइव मार कैच ले सकता है। इसके अलावा अजय एक बहुत ही शानदार शार्प शूटर है पिस्टल से को एक ही गोली में दौड़ती उड़ती भागती तैरती वस्तु को निशाना बना सकता है। इसके अलावा अजय एक जबर एथलीट है, लेकिन यह सब वो सीखा किधर यह कुछ समझ नहीं आता है !

सारांश:- अगर आज इसी फिल्में बने तो पर्दो में आग लगा देनी चाहिए। यकीनन भारत का अशिक्षित समाज को फिल्मों को देखने की तमिज होती तो भारत में बहुत से ऑस्कर आ रहे होते। ऐसी ही फिल्में देख पहले लौंडे लौंडिया घरों से भागते थे।

Netflix की '21 सरफरोश सारागढ़ी' के सामने 'केसरी' कुछ नहीं, अक्षय ने माहौल की फसल काटी



- राकेश सांगवान
रणदीप हुड्डा एक शानदार अभिनेता है, जो अपने अभिनय से पात्र में जान डाल देता है। रणदीप जिस भी पात्र की भूमिका निभाता है उस पात्र को वह अपने निजी में ढाल लेटा है ताकि पात्र को निभाने में ईमानदारी बरती जा सके। सरबजीत फिल्म में भी हम सभी ने देखा कि कैसे रणदीप ने खुद को असली के सरबजीत में ढाल लिया था और जब रणदीप ने Battle of Saragarhi शुरू की तो इसने खुद को निजी जीवन में भी सिख के स्वरुप में ढाल लिया, जिस कारण फिल्म का पोस्टर कभी चर्चा का विषय बन गया था और आम आदमी में भी रणदीप को फिल्म में इस स्वरूप में देखने की जिज्ञासा बढ़ गई थी।

रणदीप की फिल्म पर काम चल रहा था पर तभी एक भारतीय राष्ट्रवादी कैनाडा का नागरिक कूद पड़ा और उसने इस विषय पर “केसरी” नाम से फिल्म निकाल दी। अब ये श्रीमान लोगों की भावनाओं से खेलने में माहिर हैं। इन्हें वक्त की खूब समझ है। इन्हें समझ है कि आज देश में राष्ट्रवाद और धर्म की भावनाए हिलौरे ले रही है तो इसने इस फिल्म का नाम रखा “केसरी” और फिल्म में केसरी रंग की पगड़ी पहनी और इस प्रोपगंडा में ये कामयाब भी रहा। 

बैटल ऑफ़ सारागढ़ी 36 सिख की एक कम्पनी के 21 जवानों ने लड़ी थी। इस पर Netflix पर एक  21 Sarfarosh–Saragarhi 1897 नाम से एक सीरीज भी है। इस कम्पनी के जवानों की पगड़ी का रंग खाकी था, जो रणदीप हुड्डा ने पहनी हुई है और सीरीज में भी इस कम्पनी के सभी जवानों की पगड़ी खाकी रंग की ही दिखाई है, फिल्म में भी बाकी के जवानों ने खाकी पगड़ी पहनी, आज भी सिख रेजिमेंट की पगड़ी का रंग केसरी नहीं लाल है, परन्तु वक्त की नब्ज को पहचानने वाले कनाडाई नाड़ियां वैद्य ने अलग ही राग अलापा और खुद अकेले ने अलग से केसरी पगड़ी पहन कर एक राजनीतिक दल द्वारा बनाई गई जनभावना का सही से इस्तेमाल किया, जबकि यह लड़ाई कोई धर्म की नहीं धरती की थी। इस लड़ाई में सामने मुस्लिम पठान थे तो केसरी रंग की बात माहौल बनाने की लिए सही थी और केसरी रंग की बात आने पर दर्शकों की भावना बढ़िया तरीके से हलाल की गई, खुद भी बढ़िया माल कमाया और उस राजनीतिक दल के प्रोपगंडा को भी पुख्ता कर दिया।

खैर, स्याणे हैं तभी तो छद्दम राष्ट्रवादी जी देश की नागरिकता ही छोड़ गए और जनता की भावनाओं को अब बढ़िया से हलाल कर रहें हैं। थोथा चना बाजे घना वाली कहावत है इनके साथ। लोग कहेंगे कि तो क्या हुआ, देखो कितनी चैरिटी करता है। चैरिटी हर कोई करता है फर्क इतना है कि उसकी नुमाइश करने में कामयाब ज्यादा कौन होता है। इनको नुमाइश पर थोडा ज्यादा जोर देना पड़ रहा है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया तो नागरिकता वाला बवाल ज्यादा उठ जायेगा और फिर राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर बनी जनभावना की फसल कैसे काटेंगे? बाजार के खिलाडी हैं ये इन्हें पता है देश धर्म सबका बाजारीकरण करके कैसे दुकान चलानी है।

Tuesday, June 23, 2020

फ़िल्म समीक्षा : समाज के वर्गीय चरित्र और उनके संघर्ष का रूपक है 'चमन बहार'



- आशुतोष तिवारी

फ़िल्म में एक दृश्य है। स्कूल से घर के रास्ते पर स्कूटी दौड़ रही है। स्कूटी चला रही है रिंकू, सम्पन्न घर की एक लड़की, जो हैप्पी फैमिली का हिस्सा  है, जिनके पास रखने के लिए कुत्ता है, रहने के लिए बड़ी सुंदर इमारत है । एक तरफ स्कूटी पर समृद्धि है,  रफ्तार है, सौंदर्य है । दूसरी तरफ - ठीक उसी के पीछे, साइकिल है। साइकिल जो स्कूटी की तरह खुद से नही चलती, उसे खींचना पड़ता है। साइकिल का पेट्रोल केवल मनुष्य का श्रम है। उस पर सवार है बिल्लू - जो कच्चे मकान में रहता है - जो गुमटी के दम पर जिंदगी गुजारता है, जिसे अंग्रेजी नही आती है, जो बिखरे हुए परिवार का हिस्सा है। उसने जुर्रत की है - स्कूटी को पकड़ लेने की। उस यंत्र को, जिसमे बहुत रफ्तार है, जिसे चलाने के लिए मनुष्य का श्रम नही किसी दूसरे का रक्त  चाहिए । क्या बिल्लू की साइकिल कभी रिंकू की स्कूटी को पकड़ पाएगी?

नही, साइकिल जब बहुत तेज चलती है  चैन उतर जाती है। सड़के रिंकू की स्कूटी के अनुकूल है, बिल्लू की साइकिल बस इतना साथ दे सकती है कि वह स्कूटी की रफ्तार देख सके, देख कर ललचाये और अपने श्रम का तिनका तिनका लगा कर पूरा जीवन बगैर कुछ हासिल स्वाहा कर दे। उसकी स्कूटी को पकड़ लेने की जुर्रत का इनाम थानेदार की मार है क्योंकि सिस्टम रिंकू के पिता को जानता है लेकिन बिल्लू के पिता को नही। आज का सिस्टम,  रिंकू के पिता का फेमिली फ्रेंड है और इसी वजह से हर बिल्लू बेतहाशा मारा जा रहा है।

बिल्लू के हिस्से में क्या है? एक कुंठा , मार , उसके ही खोल के कुछ सिरफिरे लड़के, और स्कूटी को छू सकने का एक अधूरा सपना। बिललुओं की जब गुमटियां गिरती है तो नेताओ को बस इतना फर्क पड़ता है कि कैसे बिल्लू की आपदा को अवसर में बदल दिया जाए। ये भी सच है कि बिल्लू की जमानत भी दुनिया मे रिंकु के पापा ही कराते हैं। क्योंकि बिल्लू को जीवित रखना है, अपने सौंदर्य के बोध के लिए, खेद जताने के लिए, चॉकलेट्स के किये। आखिरी सीन में जो टी शर्ट बिल्लू ने पहन रखी है उस पर चे ग्वेरा का चित्र है। उसका हासिल क्या है?- एक चित्र- रिंकु का बनाया हुआ- गुमटी की आड़ से रिंकू को देखता बिल्लू- ताकि वह इस चित्र के सहारे सब कुछ भूल जाये और गुमटी में बैठ कर किसी रुमानियत में खोया रहे। जहां रिंकु है , स्कूटी है वहां भीड़ है और इससे बिल्लू की गुमटी भी चलेगी । दोनो वर्ग इस तरह एक दूसरे पर निर्भर हैं। बिल्लू भी वहीं रहेगा रिंकु भी। साइकिल कभी स्कूटी को यूं ही नही पकड़ सकती। आखिरी सीन उसका वही कुत्ता अपना है, जिसको डेला मार कर वह पहली दफा रिंकु से साक्षात्कार करता है। अंत मे उसी कुत्ते से नजदीकी उसके अपने वर्गीय सत्य का स्वीकार है।

यह फ़िल्म देखने पर शोहदेपन की हरकत का विजुलाइजेशन लगेगी। जिन्होंने इसे ऐसे देखा है, मेरा उनसे कोई खास आग्रह नही है। मेरी नजर यह फ़िल्म एक रूपक भी है। समाज के वर्गीय चरित्र और उनके संघर्ष का रुपक - जिसके प्रतिनिधि है- स्कूटी पर सवार रिंकु, पीछे साइकिल भगाता बिल्लू।

और अंत मे आप को यह दिखाने के लिए पोस्टर है कि एक साइकिल पर रिंकू- बिल्लू साथ रह सकते है, ताकि आप इसे देखे। जबकि फ़िल्म मे कहीं बिल्लू और रिंकु की स्वाभाविक बातचीत भी नही है। यह स्कूटी के वर्ग के द्वारा आपके साथ की गयी ठगी है।

Thursday, June 18, 2020

फिल्म समीक्षा: 'गुलाबो सिताबो' का हर फ्रेम जैसे अपने अंदर एक अलग कहानी लिए हुए है


-कुश वैष्णव

सेल्युलाइड पर कविता है फ़िल्म 'गुलाबो सिताबो'। पीकू और अक्टूबर के बाद शूजित साबित करते हैं कि सिनेमा निर्देशक का माध्यम है। लेखक के रूप में जूही चतुर्वेदी ने इस बार फिर कमाल किया है। कहानी इस बार भले ही एक पन्ने पर कह दी जा सकती है लेकिन उन्होंने बेहतरीन डायलॉग लिखकर अपने लेखन की छाप छोड़ी है। एक प्लॉट की सीमित संभावनाओं से कैसे उम्दा फ़िल्म बनाई जा सकती है ये शूजित से सीखना चाहिए। फ़िल्म का हर फ्रेम जैसे अपने अंदर एक अलग कहानी लिए हुए हो। अदायगी के मामले में अमिताभ बच्चन सब पर भारी रहें। पीकू के सनकी बूढ़े के रोल के बाद इस बार लालची बूढ़े के रोल में उन्होंने जान डाल दी। 

लालच भी इस फ़िल्म के लीड रोल में है। लगभग हर किरदार लालची और प्रेक्टिकल है। आयुष्मान खुराना, विजय राज और बृजेन्द्र काला जैसे मंझे हुए अभिनेता भी फ़िल्म में हैं मगर ये तीनों जैसे और फिल्मों में होते है वैसी ही एक्टिंग उन्होंने की है। स्पेशल मेंशन बेगम के रोल में फर्रुख ज़फर और गुड्डो के रोल में सृष्टी श्रीवास्तव का बनता है। दोनों के पास स्क्रीन प्रजेंस कम है लेकिन छाप छोड़ी है। 

लखनऊ वालों को फ़िल्म ज़रूर पसंद आएगी क्योंकि शहर भी एक किरदार की तरह है फ़िल्म में। अलीगंज, केसरबाग, हज़रतगंज का ज़िक्र और अमीनाबाद की लोकेशन फ़िल्म को खूबसूरत बनाती है। फ़िल्म की मंथर गति के साथ ताल मिलाकर चलने वाला बैकग्राउंड म्यूज़िक भी फ़िल्म की जान है। अगर फ़िल्म में  वो नहीं होता तो शायद देखते वक़्त थोड़ी से दिलचस्पी कम हो सकती थी। 

स्क्रिप्ट की अच्छी बात ये है कि ये कहीं पर भी लाउड नहीं होती, भावुक नहीं होती बल्कि पीकू की तरह थोड़ा थोड़ा गुदगुदाते हुए अपनी कहानी कहती है। यूँ तो फ़िल्म में कई बेहतरीन दृश्य है लेकिन मुझे जो पसंद आया वो एक दृश्य है जिसमे एक कठपुतली वाला गुलाबो सिताबो नाम की कठपुतलियों का नाच बच्चों को दिखा रहा है और पीछे से अमिताभ हाथ में बैलून लिए जा रहे हैं। उस सीन में कैमरे का क्राफ्ट कमाल है। यहाँ, मद्रास कैफे और विकी डोनर से होते हुए शूजित का ये सफ़र वाकई क़ाबिल ए तारीफ़ है। फ़िल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए।

Wednesday, June 17, 2020

फिल्म समीक्षा: 'गुलाबो सिताबो' लाजवाब है, ये हमारे समाज की हिप्पोक्रेसी को खोलती है


- शंभूनाथ शुक्ल

12 जून को जब सुजित सरकार की फ़िल्म गुलाबो-सिताबो prime video पर रिलीज़ हुई तब उसी दिन देखने का मन था। लेकिन फिल्म क्रिटिक्स ने उसे बकवास बता दिया। यहाँ तक लिख दिया, कि आयुष्मान खुराना ने इस फ़िल्म में काम कर खुद के पैरों में कुल्हाड़ी मार ली है। इसके बाद मैंने इसे देखने का इरादा टाल दिया। लेकिन कल रात मैंने यह फ़िल्म देख डाली। लाजवाब फ़िल्म है। अमिताभ तो खैर हैं ही अमिताभ यानी सूर्य आयुष्मान खुराना का अभिनय भी बेजोड़ है। 

मेरा मानना है, कि आयुष्मान के लिए यह फ़िल्म मील का पत्थर साबित होगी। बिना किसी नायक अथवा नायिका के सहारे बनी यह फ़िल्म हमारे समाज की हिप्पोक्रेसी को खोलती है। पेटी बुर्जुआ परिवारों में लोभ, लालच और लाचारी की यह करूण कथा है। इसे नहीं देखा तो एक अच्छी फ़िल्म से आप वंचित रह जाएँगे। आपको लगेगा कि फ़िल्म आपके आसपास घटित हो रही है। चलिए अमिताभ के लिए अवधी के शब्द बोलना कठिन नहीं लेकिन आयुष्मान ने भी बाँके रस्तोगी के रोल में ग़ज़ब की भाषा उच्चारी है।

हिंदी सिनेमा के क्रिटिक भी हिंदी साहित्य के आलोचकों की तरह हैं। जिस लेखक ने खुश कर दिया उसकी जय-जय और जिसने उन्हें नहीं पूछा उनका लिखा कूड़ा। लेकिन आप लोग इस फ़िल्म को देखें ज़रूर।
आज के माहौल में गुलाबो-सिताबो जैसी फ़िल्म की उपयोगिता इसलिए भी है क्योंकि जो समझते हैं कि हिंदू-मुस्लिम सम्बंध इतने तल्ख़ है कि दोनों के मोहल्लों में एक-दूसरे समुदाय के लोगों को किराए पर मकान नहीं मिलते। वे लखनऊ में आकर देखें। मिर्ज़ा के बगल में मिश्रा और पाँड़े के बग़ल में क्रिस्टोफ़र। यहाँ फ़ातिमा मंज़िल के मालिक मिर्ज़ा हैं और सारे किरायेदार हिंदू। धर्म या मज़हब का कोई झगड़ा नहीं।