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Tuesday, July 14, 2020

क्या डॉ कफील खान को मुसलमान होने की सज़ा मिल रही है? लगता तो कुछ ऐसा ही है !



- पंकज चतुर्वेदी
मानवाधिकारों को पुलिस के जूतों के तले कुचलने का ज्वलंत मामला है कफील खान की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में गिरफ्तारी . बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कफील खान को गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में अगस्त 2017 में ऑक्सिजन की कमी के कारण 60 से अधिक बच्चों की मौत के मामले में जेल भेज दिया गया था। 


हालाँकि यह पुष्टि हुयी कि वह तो बच्चों की जान बचने के लिए अपने पैसे से अपने अस्पताल से आक्सीजन सिलेंडर ला कर दिन रात काम कर रहे थे. उस मामले में उन्हें 9 महीने जेल में काटने पड़े बाद में एक विभागीय जांच ने उन्हें चिकित्सा लापरवाही, भ्रष्टाचार के आरोपों और हादसे के दिन अपना कर्तव्य नहीं निभाने के आरोपों से मुक्त कर दिया।

उसके बाद नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक पंजी एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मुद्दे पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके भाषण को लेकर डॉ कफील खान पर मुकदमा दर्ज किया गया था. 29 जनवरी की रात को उप्र की स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा मुम्बई एयरपोर्ट से गिरफ्तार कर कफील को अलीगढ़ में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था. जहां से पहले अलीगढ़ जिला जेल भेजा गया था तथा एक घण्टे बाद ही मथुरा के जिला कारागार में स्थानांतरित कर दिया गया था. तब से वह यहीं पर निरुद्ध है।

उल्लेखनीय है कि डॉ. कफील राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत 13 फरवरी से मथुरा जेल में बंद हैं। अभी उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) की अवधि को उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से तीन महीने के लिए बढ़ा दिया गया था। खान पर लगे एनएसए की अवधि 12 मई को खत्म हुयी थी लेकिन तीन महीनों की बढ़ोतरी के बाद वह 12 अगस्त तक बाहर नहीं आ सकेंगे।
हाल ही में उनका एक पत्र सार्वजनिक हुआ है जिसमें वे सवाल कर रहे हैं कि “किस बात की सज़ा मिल रही है मुझे?”—डॉक्टर कफ़ील ने पत्र में यह प्रश्न पूछा है। आखिर किस बात के लिए उन्हें अपने घरवालों से दूर कर दिया गया है। क्या सरकार को चलाने वाले लोग कभी यह नहीं सोचते होंगे कि बगैर डॉ. कफ़ील के उनके घर में ईद कैसे गुज़री होगी? आखिर कब तक डॉ. कफ़ील के घरवालों का हर रोज़ मुहर्रम में तब्दील होता रहेगा? ज़रा उनके इन शब्दों का दर्द तो महसूस कीजिए: “कब अपने बच्चे, बीबी, माँ, भाई, बहन, के पास जा पाऊँगा?”
कफील के भाई आदिल अहमद खान ने कहा कि पत्र 15 जून को कफील द्वारा लिखा गया था और 1 जुलाई को उनके पास पहुंच गया था। आदिल ने दावा किया कि पत्र डाक द्वारा भेजा गया था। घर की याद उनको ज़रूर सता रही है, मगर एक डॉक्टर के नाते वे खुद को जनता की सेवा न कर पाने की वजह से भी दुखी हैं। भारत में वैसे भी डॉक्टर और मरीज़ का अनुपात कम है। उस में भी एक बेहतरीन डॉक्टर को जेल में क़ैद कर सरकार कौन सा जनकल्याण कर रही है?

अपने पत्र के आखिरी जुमले में डॉ. कफ़ील कहते है कि “कब कोरोना की लड़ाई में अपना योगदान दे पाउँगा?” डॉ. खान अपने ख़त में लिखते हैं कि मैं “मगरिब (की नमाज़) पढ़ने के बाद ‘नावेल’ (उपन्यास) ले कर बैठ जाता हूँ। मगर वहां का माहौल ऐसा दम घुटने वाला होता है जिसे बयान नहीं किया जा सकता है। अगर बिजली चली गयी तो हम पढ़ नहीं सकते। फिर हम पसीने से सराबोर हो जाते हैं। रात भर कीड़े, मच्छर हमला करते हैं। पूरा बैरक मछली बाज़ार की तरह लगता है। कोई खास रहा है, कोई छींक रहा है, कोई पेशाब कर रहा है, कोई ‘स्मोकिंग’ कर रहा है…पूरी रात बैठ कर गुजारनी पड़ती है”।इसमें ये भी बताया गया है कि एक ही रूम कई कई लोग रहते हैं और बिजली के कटौती के कारण गर्मी इतनी तेज होती है जिसके कारण पसीने और मूत्र के गंध जीवन को नरक बना देता है। एक जीवित नरक वास्तव में ऐसा ही होता है।

डॉ. कफील का दावा है कि जेल में लगभग 150 से अधिक कैदी एक ही शौचालय साझा कर रहे हैं। वहीं उन्होंने जेल के खाने आदि की व्यवस्थाओं पर भी सवाल खड़े किए हैं। पत्र में कफील खान ने जेल में बिजली कटौती और खान-पान पर सवाल किए हैं। उन्होंने यहां सामाजिक दूरी के नियमों का पालन नहीं होना भी बताया है। कफील खान ने अपनी दिनचर्या को भी पत्र में लिखा है।

हाल के एक वीडियों में डॉ कफील खान कह रहे है कि ‘मेरे परिवार को डर है कि पुलिस मुझे एनकाउंटर में या यह बताकर ना मार दे कि मैं भाग रहा था। या ऐसा दिखाया जाएगा कि मैंने आत्महत्या कर ली।’ वीडियो में डॉक्टर कफील आगे कहते हैं, ‘अपनी आखिरी वीडियो में एक बात जरूर करना चाहूंगा कि मैं इतना बुजदिल नहीं हूं कि सुसाइड कर लूंगा। मैं कभी आत्महत्या नहीं करूंगा। मैं यहां से भागने वाला भी नहीं हूं जो ये (पुलिस) मुझे मार दें।’

पूर्वांचल का सारा इलाका जानता है कि डॉ कफील खान बच्चों का बेहतरीन डोक्टर है, सन २०१८ में जमानत पर बाहर आने के बाद डॉ कफील ने बिहार से ले कर केरल तक निशुल्क चिकित्सा शिविर लगाए -- उनका दोष बस यह है कि वे सरकार के लोगों को विभाजित करने वाले नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक पंजी एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मुद्दे पर सरकार से सहमत नहीं और उन्होंने उसके खिलाफ आवाज़ उठायी -- उन पर भड़काऊ भाषण का आरोप है , जो अदालत में एक मिनिट नहीं ठहर सकता सो उन पर एन एस ए लगाया गया-- इससे ज्यादा जहरीले भाषण तो कपिल मिश्र , परवेश वर्मा, रागिनी तिवारी के सोशल मिडिया पर वायरल हैं .

उत्तर प्रदेश की अमरोहा से लोकसभा सांसद कुंवर दानिश अली ने ट्वीट कर मथुरा जेल में बंद डॉ. खान को रिहा करने की मांग की। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार विकास दुबे जैसे खूंखार अपराधियों पर नरमी दिखा रही है, जबकि बच्चों की जान बचाने वाले डॉक्टर को जेल में बंद कर रखा है।

मुझे लगता है कि यदि आप एक सभी समाज का हिस्सा हैं तो खुल कर डॉ कफील को जेल में रखनी का प्रतिरोध करें-- चाहे सोशल मिडिया पर, चाहे उत्तर प्रदेश सरकार के सोशल प्लेटफोर्म पर या केक्ल अपने मन में या जाहिरा -- जान लें यदि आज चुप हो तो अन्याय का अगला कदम आपके कपाल पर ही पडेगा।

Monday, July 13, 2020

सचिन पायलट तो तभी से असंतुष्ट थे, जब राजस्थान में कांग्रेस सरकार बनी थी !



- अमिता नीरव
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद से ही सबकी नजरें राजस्थान पर टिकी हुई थी। यूँ तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार जिस दिन बनी थी, उसी दिन से उसके कभी भी गिर जाने के कयास लगाए जा रहे थे। राजस्थान में हालाँकि मध्यप्रदेश जैसे हालात नहीं थे, फिर भी बीजेपी ने जिस तरह से सारे एथिक्स को ताक पर रखकर राजनीति में आक्रामकता को मूल्य बना दिया है, उससे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सारे ही कांग्रेस शासित राज्य बीजेपी के निशाने पर होंगे।


कांग्रेस ने भी इतिहास में राज्य सरकारें गिराई हैं, लेकिन इतनी निर्लज्जता औऱ इतने खुलेआम विधायकों की खऱीद-फरोख्त का साहस नहीं कर पाई है। बीजेपी ने सारी नैतिकता और सारे मूल्यों पर ताक पर रखकर राजनीति की एक नई परिभाषा, मुहावरे, चाल-चलन औऱ चरित्र को घड़ा है। इसी के चलते अब सारे ही कांग्रेस शासित राज्य खतरे में नजर आते हैं। चाहे विधानसभा के नंबर कुछ भी कह रहे हों। 
जब राजस्थान सरकार बनी थी, सचिन तब से ही असंतुष्ट थे। वहाँ मुख्यमंत्री का नाम तय करने में कांग्रेस को पसीना आ गया था। इससे भी यह आशंका बनी ही हुई है कि वहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। खासतौर पर मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में चले जाने के तगड़े झटके के बाद...। बीजेपी के पास सबकुछ है, पैसा है, ताकत, शातिर दिमाग और सबसे ऊपर सत्ता, जिसके दम पर वह पिछले कुछ सालों में घटियापन की सारी हदें पार करती रही है। 
इन कुछ सालों में देश के एलीट, संभ्रांत औऱ ट्रेंड सेटर तबके ने खासा निराश किया है। बात चाहे किसी भी क्षेत्र की हो, राजनीति, फिल्म, साहित्य या फिर कला की कोई भी विधा। यकीन नहीं आता कि समाज में जो लोग प्रभावशाली जगहों पर काबिज है, वे इस कदर स्वार्थी, डरपोक और गैर-जिम्मेदार होंगे। देश में प्रतिरोध करने वालों को लगातार दबाया जा रहा है, इससे वो आम लोग जो सरकार से सहमत नहीं हैं, वे भी अपनी बात कहने का हौसला खोने लगे हैं। 1947 से बाद से इमरजेंसी को छोड़ दिया जाए तो देश में इतने बुरे हालात शायद ही कभी हुए होंगे।

हमें यह मानना ही होगा कि देश नायक विहीन हैं। जिस किसी की तरफ हमने नेतृत्व के लिए देखा, उस-उसने हमें निराश किया है। राजनीतिक विचारधारा सिर्फ अनुयायियों के हिस्से में ही है, जो लोग सक्रिय राजनीति में हैं उनकी नजर अब सिर्फ औऱ सिर्फ सत्ता पर है। इस वक्त में जबकि हम नेता विहीन हैं, हमारी जिम्मेदारी बहुत-बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। कॉलेज में पढ़ा था कि राजनीति सत्ता के लिए संघर्ष है और ‘साम-दाम-दंड-भेद’ या फिर ‘बाय हुक ऑर बाय क्रुक’ जैसे मुहावरे जीवन के हर क्षेत्र की तरह राजनीति में भी कुछ भी करके सत्ता में आने को प्रोत्साहित करते हैं।

तब हमारे लिए क्या बचता है? क्या हम सिर्फ ऐसे वोटर ही बने रहेंगे जिसे सत्ता में बैठे लोग जैसे चाहे, वैसे प्रभावित कर सकते हैं या फिर हम अपनी ताकत का सही इस्तेमाल करेंगे? मध्यप्रदेश में सरकार बदलने के बाद विधानसभा में उपचुनाव होने हैं, ऐसे में हमें अपनी भूमिका पर फिर से विचार करना चाहिए। हमें हर हाल में सत्ता की चाहत रखने वालों को आईना दिखाना ही होगा। अब राजनीति में नैतिकता और संवैधानिक मूल्यों की स्थापना के लिए हमें ही आगे आना होगा। वोटर्स को ही यह बताना होगा कि अब अनैतिक तरीके से बनाई गईं सरकारों को हम स्वीकार नहीं करेंगे। यदि सत्ता चाहिए तो अपने चरित्र को बदलना होगा। हमें भी यदि बेहतर समाज चाहिए तो अपना राजनीतिक व्यवहार बदलना होगा।

हर संकट में कुछ बेहतर होने का बीज छुपा होता है, इस दौर में लगातार गिरते राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों को बचाने के लिए हमें किसी नायक का इंतजार करने की बजाए, खुद ही अपनी और अपने समाज की जिम्मेदारी लेनी होगी। उन सारे राजनेताओं को नकारिए जो सिर्फ सत्ता की चाह औऱ महत्वाकांक्षा में जनादेश का अपमान कर रहे हैं। यदि सत्ता मूल्यों के साथ खिलवाड़ करती है तो उसे भी सबक सिखाना होगा।

Sunday, July 12, 2020

एनकाउंटर का जश्न: लोकतंत्र में न्यायपालिका पर विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है


-मनिंदर सिंह
यह जो एनकाउंटर संस्कृति का जश्न मनाने में मशगूल है उन्हें  इतना पता होना चाहिए कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधियों का एनकाउंटर तभी होता है जब वह या अपने पालनहारों के लिए खतरा बन जाते हैं या फिर उनकी पूंछ पर ही पैर रख देते हैं। यदि आप यहां तर्क दे रहे हैं कि पुलिस ने अपने शहीद साथियों की मौत का बदला लेने के लिए दुबे को मारा है तो फिर यह भी समझ लीजिए कि दुबे ने उन आठ पुलिस वालों को पुलिस वालों की मुखबिरी की वजह से ही मारा था। यदि इसके पहले अपराध में ही पुलिस वाले और सिस्टम ढंग से काम करते तो तभी इसे टांग दिया जा सकता था इसे इतना बड़ा अपराधी बनाने में भी पुलिस और राजनेताओं का सबसे बड़ा हाथ रहा। 


दुबे जैसे लोग सिर्फ मोहरा होते हैं जिन्हें राजनेता और यह सिस्टम अपने फायदे के लिए खड़ा करता है और जब काम निकल जाता है तो ऐसे ही सफाया भी कर दिया जाता है। वह तो वैसे भी इन्हीं का आदमी था जब तक सिस्टम सही से चल रहा था तब तक सब ठीक था जहां इनकी पूंछ पर पैर रखा वहां बात बिगड़ गई। सिस्टम यूं ही चलता रहता है नया दुबे खड़ा कर दिया जाता है। याद रखिएगा एनकाउंटर आज से शुरू नहीं हुए यह पहले भी होते थे और आगे भी चलते रहेंगे। 

यदि आप इसी तरह एनकाउंटर संस्कृति पर जश्न मनाएंगे और और सरकारों की ओर पुलिस की पीठ थपथपाएंगे तो फिर आने वाले समय में न्यायपालिका से भरोसा और भी उठता जाएगा। और कल को यदि आप से जुड़े किसी निर्दोष का भी एनकाउंटर करके उसे भी जायज ठहरा दिया जाए तो फिर हैरानी मत मानिएगा। उस समय भी उस पर जश्न मनाने वाले लोग मौजूद होंगे। अरे देश का इतिहास सैकड़ों ऐसे फर्जी एनकाउंटर से अटा पड़ा है जहां पर निर्दोष लोगों को दोषी बताकर उनका फर्जी एनकाउंटर किया गया और बाद में जब केस खुले तो फिर काली कहानी निकलकर सामने आई। 

मुझे याद आता है कि हमारे शहर के एक बहुत बड़े उद्योगपति के जवान पुत्र का दिनदहाड़े सालों पहले फर्जी एनकाउंटर कर दिया गया था वह तो उनका रसूख था जो वह इस केस को बड़ी अदालत तक लड़े और अपने बेटे को न्याय दिलवा पाए परंतु सब के पास ना पैसा होता है और ना ही इतनी ताकत। लोकतंत्र में न्यायपालिका का विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है। याद रखिए आप अभी इस पर जश्न मना रहे हैं परंतु एक समय ऐसा भी आ सकता है जब आप पछता रहे होंगे तब शायद आपकी तरफ भी कोई ना खड़ा हो। 

पुलिस की गोली जब बेलगाम हो जाती है ना तो फिर वह जाती दल या कुछ और नहीं देखती। इसलिए कानून का इकबाल बना रहे वह सबसे ज्यादा जरूरी है। न्यायपालिका कितने खतरे में है इसका पता तो इसी बात से चल जाता है कि पुलिस वालों को भी इस बात का भरोसा नहीं रहा कि सिस्टम से उन्हें न्याय मिल पाएगा इस वजह से उन्हें स्वयं अपराधी को उसके अंजाम तक पहुंचाना पड़ा। यह सच में भयावह है। बाकी इस एनकाउंटर में शामिल रहे पुलिस वालों के लिए एक ही सलाह के भैया एनकाउंटर करने से पहले इससे अच्छा होता कि खाकी मूवी के फ्लॉप एक्टर तुषार कपूर की आखिरी सीन वाली एक्टिंग भी देख लेते तो शायद कहानी असली लगती।

डिस्क्लेमर- हम किसी भी तरह के अपराध या अपराधी का समर्थन नहीं करते ना ही समूल तौर पर पुलिस या किसी संस्था का विरोध करते। उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ न्याय व्यवस्था को बाईपास करके एनकाउंटर संस्कृति को बढ़ावा देने पर चिंता जाहिर करना है। जिंदगी ना मिलेगी दोबारा।

Saturday, July 11, 2020

दिए जलाओ, नगाड़े बजाओ, विकास को न्याय मिल गया, न्यू इंडिया में आपका स्वागत है!



- मनीष सिंह
इंस्टंट न्याय.... न कोर्ट, न पेशी, न जज, न जल्लाद, ये एनकाउंटर न्याय है बबुआ। भारत अब वो भारत नही जो टीवी पर गोलियां बरसाते हुए पाकिस्तानी को भी भारतीय न्यायिक प्रक्रिया से गुजारता था। अब नुक्कड़ पर खड़ा पुलिसवाला शहंशाह है- जो रिश्ते में तो आपका बाप लगता है। 

बापजी रिपब्लिक में आपका स्वागत है। वर्दी बदल दी जानी चाहिए, खाकी और खादी का अंतर भी। अब इनको चाहिए काली पोशाक, एक हाथ मे रिवाल्वर दूसरे में फांसी की रस्सी। पीछे साउंड ट्रेक चले- "अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर, हर जुल्म मिटाने को..."

यह अंधेरी रात ही है। यह अंधेरा पसन्द किया गया था, चाहा गया था। विकास के गुजरात मॉडल की तरह, न्याय के इस मॉडल को सोहराबुद्दीन मॉडल का नाम मिलना चाहिए। यह मजबूत सरकार है। हमने सोचा था कि मजबूती दिल्ली में रहेगी, हम दूर अपने शहर गांव में आराम से रहेंगे। ऐसा नही होता, सरकार हमेशा आपके दरवाजे से थोड़ी दूर ही होती है। 

उसकी 56 की छाती पर बुलेटप्रूफ जैकेट होती है, आपकी नही। आपकी मजबूती की तमन्ना गलवान में पूरी नही हो पाती, तो क्या हुआ। यह भोपाल हैदराबाद और केरल में तो पूरी हो रही है। आपके मोहल्ले में भी होगी, आराम से बैठिए, जब तक गोली आपके घर मे न घुसे। अभी थोड़ा वक्त है, तब तक दिए जलाए जा सकते हैं, थालियां और नगाड़े बजाए जा सकते हैं। 

आप पूछ सकते हैं कि नया क्या है। क्या 70 साल में एनकाउंटर नही हुए? जी हां, बिल्कुल हुए। नयापन बेशर्मी का है। किस्सों का है, उस कुटिल मुस्कान का है जो बेशर्म झूठ बोलते वक्त मूंछो के नीचे फैल आती है। आगे स्क्रिप्ट वही है, ज्यूडिशियल इंक्वायरी, और फिर कहानी का वेलिडेशन। सब मिले हुए हैं जी। 

मुझे लगता है कि कुछ तो बदलाव होना चाहिए। हर थाने और चौकी में एक नई पोस्ट क्रिएट होनी चाहिए। नही एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नही ..  वो तो हर सशस्त्र पुलिसवाला कभी भी बन सकता है अगर सैय्या कोतवाल हो और सामने कांपता हुआ आरोपी। हर थाने चौकी में एक "एनकाउंटर  स्क्रिप्ट राइटर" की जरूरत है। जो एनकाउंटरों के लिए एक कन्विसिंग कहानी लिख सके। 

असल मे जजो को इस काम मे प्रतिनियुक्त किया जा सकता है। क्योंकि न्यायालयों की जरूरत तो अब है नही। ये कहानियां आपके कोर्ट में आने पर आप स्वीकार कर सकते है, तो बेहतर है थाने में बैठकर लिख भी दिया करें। 

मेरी मांग और सुझाव पर गहराई से सोचिये। आखिर आपके भैया, पापा, बेटे की लाश जब घर में आये, तो साथ आयी उसके एनकाउंटर की कहानी में जरा विश्वसनीयता भी होनी चाहिए.. 

तो बताइये बहनों और उनके भाइयो। 
होनी चईये कि नई होनी चईये ??

यह मत पूछिए कि अदालत कहां है? यह पूछिए, जिस लोकतंत्र में अदालत होती है, वो लोकतंत्र कहां है?

- कृष्णकांत
जब भी किसी गैर-न्यायिक हत्या पर सवाल उठते हैं तो लोग पूछते हैं कि भारत में न्यायपालिका है ही कहां? एक थे जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर. इंदिरा गांधी जब इलाहाबाद हाईकोर्ट से अपनी संसद सदस्यता गवां बैठीं तो उनके कानून मंत्री एचआर गोखले पहुंचे जस्टिस अय्यर के पास. जस्टिस अय्यर उस समय सुप्रीम कोर्ट में थे और गोखले से उनकी दोस्ती थी. गोखले सोच रहे थे कि जस्टिस अय्यर, इंदिरा गांधी को राहत दे देंगे. लेकिन जस्टिस अय्यर ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया और संदेश भिजवाया कि हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दें.

सुप्रीम कोर्ट में उस वक्त छुट्टी चल रही थी. जस्टिस अय्यर अकेले जज थे. उनके सामने मामला पेश हुआ. इंदिरा की पैरवी के लिए नानी पालकीवाला और राज नारायण की तरफ़ से प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण पेश हुए. वकीलों ने बहस के लिए दो घंटे का समय मांगा. दोनों दिग्गज वकीलों ने 10.30 बहस शुरू की और शाम पांच बजे तक बहस चली. जस्टिस अय्यर ने अगले दिन फैसला देने का वक्त मुकर्रर किया. रात में उनका आवास किले में तब्दील हो गया. रात भर फैसला लिखा गया.

अगले दिन इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता चली गई थी. उन्होंने इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता ख़त्म कर दी पर उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने दिया. इस फैसले से इंदिरा गांधी, कांग्रेस और पूरा देश स्तब्ध था. अगले दिन इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया.


ये वही जस्टिस अय्यर हैं जिन्होंने जस्टिस पीएन भगवती के साथ मिलकर जनहित याचिकाओं की शुरुआत की कि पीड़ित व्यक्ति या समाज के लिए अखबार की कतरन, किसी की चिट्ठी पर भी अदालत स्वत:संज्ञान ले सकती है.

एक बार अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा था, ‘जस्टिस अय्यर आज तक सुप्रीम कोर्ट में जितने भी न्यायाधीश हुए, उनमें सबसे महान जज थे.’ इंदिरा गांधी के केस की तरह भारतीय न्यायपालिका की दिलेरी की असंख्य कहानियां हैं. चाहे केंद्र की शक्ति सीमित करने का मामला हो, चाहे न्यायिक सक्रियता का मामला हो, चाहे व्यक्ति के मानव अधिकार बहाल करना हो. सब लिखने की जगह यहां नहीं है.


1951 में ही संविधान संशोधन की वैधता जांचना, गोलकनाथ केस, मिनरवा​ मिल्स मामला, केशवानंद भारती केस, रोमेश थापर केस जैसे तमाम माइलस्टोन हैं, जिनके बारे में जाना जा सकता है. जस्टिस अय्यर के अलावा जस्टिस पीएन भगवती, जस्टिस चंद्रचूड़ और जेएस वर्मा के फैसलों का अध्ययन किया जा सकता है, जिन्होंने न्यायिक सक्रियता को मजबूत किया. निजी अधिकार, समलैंगिकता जैसे मामले हाल के हैं.

भारतीय न्यायपालिका विश्व की कुछ चुनिंदा मजबूत न्यायपालिका में से एक है. जस्टिस लोया जैसे कांड ने इसे बड़ी क्षति पहुंचाई है. आज कोई नेता न्यायपालिका को अपनी जेब में रखना चाहता है, बुरे उदाहरण देकर मॉब लिंचिंग को स्थापित करना चाहता है, तो इसलिए क्योंकि आप उसके हर कृत्य पर ताली बजाते हैं. चार जजों ने आकर कहा था कि सरकार न्यायपालिका पर अनधिकृत दबाव डाल रही है, तब यही जनता उसे वामपंथियों की साजिश बता रही थी. इसके पहले भ्रष्टाचार के आरोप में आकंठ डूबी यूपीए सरकार की दुर्गति अदालत में ही हुई थी.


समस्या ये है कि पूरा देश वॉट्सएप विषविद्यालय में पढ़ाई कर रहा है, जहां सिर्फ बुराइयां बताकर हमसे कहा जाता है कि इस सिस्टम से घृणा करो ताकि इसे खत्म किया जा सके. दुखद ये है कि अपने देश और अपने तंत्र से अनजान आप ऐसा करते भी हैं. आप यह मत पूछिए कि अदालत कहां है? आप यह पूछिए जिस लोकतंत्र में अदालत होती है, वह लोकतंत्र कहां है? 'ठोंक देने' वाला लोकतंत्र दुनिया में कहां मौजूद है?

वो कौन हैं जो चाहते थे विकास दुबे जिंदा न रहे, किसके लिए मुसीबत बन सकता था विकास दुबे?


- रोहित देवेंद्र शांडिल्य
इसमें कोई शक नहीं है कि विकास दुबे की पुलिस कस्टडी में हत्या की गई. शक इसमें भी नहीं है कि वह अपराधी था। शक सिर्फ इस बात में है कि क्या विकास दुबे इस समय यूपी का ऐसा अपराधी था जिसे हर हाल में मार डालना ही अंतिम विकल्प था। उसका जिंदा रहना यूपी की कानून व्यवस्‍था ही नहीं पूरी मानव सभ्यता के‌ अस्तित्व के लिए खतरा था? 

अपराध की दुनिया से सीधा वास्ता ना रखने वाले लोगों के लिए एक सप्ताह पहले विकास दुबे कोई नहीं था। ना उसे लोग नाम से जानते थे ना ही काम से और ना ही तस्वीरों से। एक रात जब पुलिस कर्मियों के मरने की खबर आई तो किसी दूसरे विकास की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं। किसी एड्रेस प्रूफ में लगी उसकी धुंधली सी तस्वीर ही मीडिया के पास थी। कानपुर और कानपुर देहात के अलावा विकास को जानने वाले उंगलियों में गिनने भरके थे। आप खुद से पूछिए जिस विकास के एनकाउंटर के लिए आप बेकरार थे उसे आप आठ दिन पहले जानते भी थे क्या?  फिर ऐसा क्या हुआ कि एक अपराधी जिसके ऊपर एक सप्ताह पहले तक पुलिस ने गैंगस्टर एक्ट नहीं लगाया हुआ था उसे गिरफ्तार करने के लिए भारी पुलिस दल वहां अचानक पहुंचा। इसमें भी शक नहीं है कि उसकी मुखबिरी ना होती तो उसी रात उसको मार डालने के इंतजाम थे।

शक इसमें भी नहीं कि उस रात जो कुछ जो भी हुआ वह गलत था। पुलिस कर्मियों की हत्याएं कष्टकारी थीं। लेकिन न्याय की व्यवस्‍था क्या कहती है?  जब एक साथ कई मासूम लोगों को डायनामाइट से उड़ा देने वालों को जेल में रखा जाता है। उनकी सुनवाई होती है फिर उन्हें सजा होती है। तो फिर यह अधिकार विकास दुबे को क्यों नहीं मिलना चाहिए था? विकास दुबे को भारत की न्याय प्रणाली और संविधान में मिले अधिकार एक झटके में इसलिए खत्म किए जा सकते हैं क्योंकि कोई चाहता है कि अब वह जिंदा ना रहे? उसका जिंदा रहना किसी के लिए मुसीबत बढ़ते जाना जैसा बन गया था? 

या विकास को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसके आदमियों ने पुलिस वालों की हत्याएं की थीं। तो यदि कोई अपराधी किसी आम आदमी की हत्या करता है तो उसके ऊपर अपराध कोर्ट साबित करती है लेकिन जब अपराध पुलिस के साथ होता है तो यह नियम बदल जाते हैं। पुलिस की भी नियत देखिए। उसकी निगाह में एक जान की कीमत तब महत्वपूर्ण है जब हत्या पुलिस वाले की हो। ‌मरने वाला यदि किसी दूसरे पेशे से हो तब पुलिस के लिए खास चिंता का विषय नहीं है। आप या तो पुलिस में भर्ती हो जाइए यदि ऐसा नहीं कर पाते हैं तो फिर आपकी जान बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। 

रिश्वत लेकर बनाए गए ओवरब्रिज के गिरने से एक झटके में दर्जनों लोग मर जाते हैं। जिनके घर के लोग मरते हैं वह बंदूक लेकर किससे बदला लेने निकले? पुलिस सजेस्ट करे कि वह किसको मारें? उनके पास रिवॉल्वर नहीं होतीं या बदला लेने का यह अधिकार पुलिस के पास होता है। पुलिस के जिस कृत्य को आप अपराधी के मार डालने से जस्टीफाई कर रहे हैं जरा उसकी नियम टटोलकर देखिए। 

सरकार से सवाल पूछना या उसके किसी कृत्य पर बात करना फैशन के बाहर है। आईटी सेल तय करता है कि समाज किस दिशा में सोचे। आईटी सेल की सोच के अनुसार ही मीडिया अपनी थीम तय करता है। आईटी सेल इस हत्या को जस्टीफाई कर रहा है तो मीडिया का फर्ज है कि वह भी इसे जस्टीफाई करे। मैं टीवी नहीं देखता लेकिन मीडिया इस घटना पर प्रश्न खड़ा करने के बजाय योगी की सख्त इमेज से जोड़कर उस पर कविताएं लिख रहा होगा। 'ले लिया बदला' या 'चमकता प्रदेश थर्राते अपराधी' जैसे थीम वाले विशेष प्रोग्राम चल रहे होंगे। 

वह समय गया जब मीडिया किसी घटना पर नीर झीर का विवेक करता था। वह गलत और सही को चुनने में आपकी मदद करता था। अब वह दौर नहीं है। यह आपको सोचना है कि पुलिस और सरकारों के मुंह में जब किसी की हत्या करने का खून लग चुका हो तो यह आपके लिए किस हद तक नुकसान देय है। कमजोर न्यायपालिका और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया आपका भला कर सकती हैं या बुरा ये बात आने वाले दो दिन के 'स्मॉल लॉकडाउन' में आप सोच सकते हैं...