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Monday, July 13, 2020

सचिन पायलट तो तभी से असंतुष्ट थे, जब राजस्थान में कांग्रेस सरकार बनी थी !



- अमिता नीरव
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद से ही सबकी नजरें राजस्थान पर टिकी हुई थी। यूँ तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार जिस दिन बनी थी, उसी दिन से उसके कभी भी गिर जाने के कयास लगाए जा रहे थे। राजस्थान में हालाँकि मध्यप्रदेश जैसे हालात नहीं थे, फिर भी बीजेपी ने जिस तरह से सारे एथिक्स को ताक पर रखकर राजनीति में आक्रामकता को मूल्य बना दिया है, उससे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सारे ही कांग्रेस शासित राज्य बीजेपी के निशाने पर होंगे।


कांग्रेस ने भी इतिहास में राज्य सरकारें गिराई हैं, लेकिन इतनी निर्लज्जता औऱ इतने खुलेआम विधायकों की खऱीद-फरोख्त का साहस नहीं कर पाई है। बीजेपी ने सारी नैतिकता और सारे मूल्यों पर ताक पर रखकर राजनीति की एक नई परिभाषा, मुहावरे, चाल-चलन औऱ चरित्र को घड़ा है। इसी के चलते अब सारे ही कांग्रेस शासित राज्य खतरे में नजर आते हैं। चाहे विधानसभा के नंबर कुछ भी कह रहे हों। 
जब राजस्थान सरकार बनी थी, सचिन तब से ही असंतुष्ट थे। वहाँ मुख्यमंत्री का नाम तय करने में कांग्रेस को पसीना आ गया था। इससे भी यह आशंका बनी ही हुई है कि वहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। खासतौर पर मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में चले जाने के तगड़े झटके के बाद...। बीजेपी के पास सबकुछ है, पैसा है, ताकत, शातिर दिमाग और सबसे ऊपर सत्ता, जिसके दम पर वह पिछले कुछ सालों में घटियापन की सारी हदें पार करती रही है। 
इन कुछ सालों में देश के एलीट, संभ्रांत औऱ ट्रेंड सेटर तबके ने खासा निराश किया है। बात चाहे किसी भी क्षेत्र की हो, राजनीति, फिल्म, साहित्य या फिर कला की कोई भी विधा। यकीन नहीं आता कि समाज में जो लोग प्रभावशाली जगहों पर काबिज है, वे इस कदर स्वार्थी, डरपोक और गैर-जिम्मेदार होंगे। देश में प्रतिरोध करने वालों को लगातार दबाया जा रहा है, इससे वो आम लोग जो सरकार से सहमत नहीं हैं, वे भी अपनी बात कहने का हौसला खोने लगे हैं। 1947 से बाद से इमरजेंसी को छोड़ दिया जाए तो देश में इतने बुरे हालात शायद ही कभी हुए होंगे।

हमें यह मानना ही होगा कि देश नायक विहीन हैं। जिस किसी की तरफ हमने नेतृत्व के लिए देखा, उस-उसने हमें निराश किया है। राजनीतिक विचारधारा सिर्फ अनुयायियों के हिस्से में ही है, जो लोग सक्रिय राजनीति में हैं उनकी नजर अब सिर्फ औऱ सिर्फ सत्ता पर है। इस वक्त में जबकि हम नेता विहीन हैं, हमारी जिम्मेदारी बहुत-बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। कॉलेज में पढ़ा था कि राजनीति सत्ता के लिए संघर्ष है और ‘साम-दाम-दंड-भेद’ या फिर ‘बाय हुक ऑर बाय क्रुक’ जैसे मुहावरे जीवन के हर क्षेत्र की तरह राजनीति में भी कुछ भी करके सत्ता में आने को प्रोत्साहित करते हैं।

तब हमारे लिए क्या बचता है? क्या हम सिर्फ ऐसे वोटर ही बने रहेंगे जिसे सत्ता में बैठे लोग जैसे चाहे, वैसे प्रभावित कर सकते हैं या फिर हम अपनी ताकत का सही इस्तेमाल करेंगे? मध्यप्रदेश में सरकार बदलने के बाद विधानसभा में उपचुनाव होने हैं, ऐसे में हमें अपनी भूमिका पर फिर से विचार करना चाहिए। हमें हर हाल में सत्ता की चाहत रखने वालों को आईना दिखाना ही होगा। अब राजनीति में नैतिकता और संवैधानिक मूल्यों की स्थापना के लिए हमें ही आगे आना होगा। वोटर्स को ही यह बताना होगा कि अब अनैतिक तरीके से बनाई गईं सरकारों को हम स्वीकार नहीं करेंगे। यदि सत्ता चाहिए तो अपने चरित्र को बदलना होगा। हमें भी यदि बेहतर समाज चाहिए तो अपना राजनीतिक व्यवहार बदलना होगा।

हर संकट में कुछ बेहतर होने का बीज छुपा होता है, इस दौर में लगातार गिरते राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों को बचाने के लिए हमें किसी नायक का इंतजार करने की बजाए, खुद ही अपनी और अपने समाज की जिम्मेदारी लेनी होगी। उन सारे राजनेताओं को नकारिए जो सिर्फ सत्ता की चाह औऱ महत्वाकांक्षा में जनादेश का अपमान कर रहे हैं। यदि सत्ता मूल्यों के साथ खिलवाड़ करती है तो उसे भी सबक सिखाना होगा।

Friday, June 12, 2020

राजनेता का आकलन भाषण से नहीं, सवालों का जवाब देने की क्षमता के आधार पर होना चाहिए

-राकेश कायस्थ

किसी भी राजनेता का आकलन उसके भाषण देने की कला के आधार पर नहीं बल्कि सवालों के जवाब देने की क्षमता के आधार पर होना चाहिए। भाषण देना एक तरह का लाइव परफॉरमेंस है। अगर आप में अभिनय की नैसर्गिक प्रतिभा है या आप उसे अभ्यास से निखारने के लिए प्रतिबद्ध हैं तो आप अच्छे वक्ता हो सकते हैं। लेकिन जवाब आप तभी दे सकते हैं, जब आपमें किसी विषय की समझ हो, साथ-साथ न्यूनतम जिम्मेदारी और ईमानदारी भी हो।

मेरे लिए राहुल गाँधी को `पप्पू' ना मानने का कारण पिछले तीन साल में दिये गये वो जवाब हैं, जो जिन्होंने ट्रोल और कॉरपोरेट मीडिया के हमलावर पत्रकारों के सवालों पर दिये हैं। 2017 के गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गाँधी ने एक सवाल के जवाब में कहा था `भारत जैसे जटिल देश को चलाना एक तरह का कंप्रोमाइज़ है। जो व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा समूहों से बातचीत करेगा और उन्हें ठीक से सुने और समझेगा, वही इस काम में कामयाब हो सकता है।'

मेरा ख्याल है, इससे न्यायसंगत कोई बात नहीं हो सकती है। मैंने एक पोस्ट में लिखा था कि नरेंद्र मोदी एक ऐसे दौर के नेता हैं, जहाँ उपभोक्तावाद अपने चरम पर है। वोटर राजनेता को एक सिर्फ प्रोडक्ट के रूप में देखता है। वह मानता है कि मैंने वोट दे दिया तो मेरी जिम्मेदारी खत्म हो गई। प्रोडक्ट आ गया है और वह अपने आप चलता रहेगा।लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है। आपको हमेशा उस आदमी पर नज़र रखनी पड़ती है, जिसे आपने चुना है। लेकिन कंज्यूमर वोटर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ चुका है। जब उसके द्वारा चुने गये नेता की आलोचना होती है, वह उसी तरह रियेक्ट करता है, जैसे कोई कहे कि मैंने 18 लाख की गाड़ी खरीदी है, तुम इसे खराब कैसे बता सकते हो? 
सरकार को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर जब वोटर उसकी नाकामियों पर पर्दा डालने लगे तो यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र गहरे संकट में है। 

नरेंद्र मोदी इस तेवर के साथ सत्ता में आये थे कि इस देश का पूरा सिस्टम बकवास है और शीर्ष पर बैठे लोग कामचोर है। वे चुटकियों में सबकुछ बदलकर इस देश को स्वर्ग बना देंगे। मगर इसके उलट व्यवस्था ऐसी है कि रेल मंत्री तक को पता नहीं है कि एक स्टेशन से खुली गाड़ी अगले स्टेशन तक पहुँचेगी या नहीं या फिर बीच में ही गुम हो जाएगी।

मोदीजी ने पिछले छह साल में अपने वोटरों की कंडीशनिंग इस तरह की है कि कुछ भी सोचना पाप है, क्योंकि मोदी है, तो मुमकिन है।


कोराना संकट बता रहा है कि लगातार किये जा रहे हवा-हवाई दावों और देश की वास्तविक स्थिति में कितना बड़ा अंतर है। अगर हम अपनी आनेवाली पीढ़ियों के लिए बेहतर भविष्य चाहते हैं तो यह बहुत ज़रूरी है कि इस देश, समाज और सिस्टम को ठीक से समझें और अपेक्षाएँ उतनी ही रखें, जितनी पूरी हो सकती हैं। तमाम सूचकांकों में सौंवे पायदान से नीचे का भारत किसी जादू की छड़ी से रातों-रात महाशक्ति नहीं बन सकता है। झूठे सपने दिखाने वालों से कहना जनता का फर्ज है कि भइया थोड़ा ठीक-ठाक लगा लो।

चार दिन में चालीस किलो वजन किसी भी तरह के डाइटिंग प्रोग्राम से कम नहीं हो सकता है। उसी तरह रातो-रात कुछ भी बदल जाने का ख्वाब हवा-हवाई है। हम अपने लिए सिर्फ एक वाजिब रास्ता चुन सकते हैं और यह देख सकते हैं कि चुनी हुई सरकार उसपर चल रही है या नहीं। लोकतंत्र में नागरिक का काम बस इतना ही है।