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Sunday, July 12, 2020

एनकाउंटर का जश्न: लोकतंत्र में न्यायपालिका पर विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है


-मनिंदर सिंह
यह जो एनकाउंटर संस्कृति का जश्न मनाने में मशगूल है उन्हें  इतना पता होना चाहिए कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधियों का एनकाउंटर तभी होता है जब वह या अपने पालनहारों के लिए खतरा बन जाते हैं या फिर उनकी पूंछ पर ही पैर रख देते हैं। यदि आप यहां तर्क दे रहे हैं कि पुलिस ने अपने शहीद साथियों की मौत का बदला लेने के लिए दुबे को मारा है तो फिर यह भी समझ लीजिए कि दुबे ने उन आठ पुलिस वालों को पुलिस वालों की मुखबिरी की वजह से ही मारा था। यदि इसके पहले अपराध में ही पुलिस वाले और सिस्टम ढंग से काम करते तो तभी इसे टांग दिया जा सकता था इसे इतना बड़ा अपराधी बनाने में भी पुलिस और राजनेताओं का सबसे बड़ा हाथ रहा। 


दुबे जैसे लोग सिर्फ मोहरा होते हैं जिन्हें राजनेता और यह सिस्टम अपने फायदे के लिए खड़ा करता है और जब काम निकल जाता है तो ऐसे ही सफाया भी कर दिया जाता है। वह तो वैसे भी इन्हीं का आदमी था जब तक सिस्टम सही से चल रहा था तब तक सब ठीक था जहां इनकी पूंछ पर पैर रखा वहां बात बिगड़ गई। सिस्टम यूं ही चलता रहता है नया दुबे खड़ा कर दिया जाता है। याद रखिएगा एनकाउंटर आज से शुरू नहीं हुए यह पहले भी होते थे और आगे भी चलते रहेंगे। 

यदि आप इसी तरह एनकाउंटर संस्कृति पर जश्न मनाएंगे और और सरकारों की ओर पुलिस की पीठ थपथपाएंगे तो फिर आने वाले समय में न्यायपालिका से भरोसा और भी उठता जाएगा। और कल को यदि आप से जुड़े किसी निर्दोष का भी एनकाउंटर करके उसे भी जायज ठहरा दिया जाए तो फिर हैरानी मत मानिएगा। उस समय भी उस पर जश्न मनाने वाले लोग मौजूद होंगे। अरे देश का इतिहास सैकड़ों ऐसे फर्जी एनकाउंटर से अटा पड़ा है जहां पर निर्दोष लोगों को दोषी बताकर उनका फर्जी एनकाउंटर किया गया और बाद में जब केस खुले तो फिर काली कहानी निकलकर सामने आई। 

मुझे याद आता है कि हमारे शहर के एक बहुत बड़े उद्योगपति के जवान पुत्र का दिनदहाड़े सालों पहले फर्जी एनकाउंटर कर दिया गया था वह तो उनका रसूख था जो वह इस केस को बड़ी अदालत तक लड़े और अपने बेटे को न्याय दिलवा पाए परंतु सब के पास ना पैसा होता है और ना ही इतनी ताकत। लोकतंत्र में न्यायपालिका का विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है। याद रखिए आप अभी इस पर जश्न मना रहे हैं परंतु एक समय ऐसा भी आ सकता है जब आप पछता रहे होंगे तब शायद आपकी तरफ भी कोई ना खड़ा हो। 

पुलिस की गोली जब बेलगाम हो जाती है ना तो फिर वह जाती दल या कुछ और नहीं देखती। इसलिए कानून का इकबाल बना रहे वह सबसे ज्यादा जरूरी है। न्यायपालिका कितने खतरे में है इसका पता तो इसी बात से चल जाता है कि पुलिस वालों को भी इस बात का भरोसा नहीं रहा कि सिस्टम से उन्हें न्याय मिल पाएगा इस वजह से उन्हें स्वयं अपराधी को उसके अंजाम तक पहुंचाना पड़ा। यह सच में भयावह है। बाकी इस एनकाउंटर में शामिल रहे पुलिस वालों के लिए एक ही सलाह के भैया एनकाउंटर करने से पहले इससे अच्छा होता कि खाकी मूवी के फ्लॉप एक्टर तुषार कपूर की आखिरी सीन वाली एक्टिंग भी देख लेते तो शायद कहानी असली लगती।

डिस्क्लेमर- हम किसी भी तरह के अपराध या अपराधी का समर्थन नहीं करते ना ही समूल तौर पर पुलिस या किसी संस्था का विरोध करते। उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ न्याय व्यवस्था को बाईपास करके एनकाउंटर संस्कृति को बढ़ावा देने पर चिंता जाहिर करना है। जिंदगी ना मिलेगी दोबारा।

Saturday, July 11, 2020

यह हिंदी वाला एनकाउंटर है, जो 'होता' नहीं 'किया जाता' है...जैसे प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है !



- सुधींद्र मोहन शर्मा

"हो जाता है प्यार, प्यार किया नही जाता"
आज ये पुराना गाना क्यों याद आ रहा है , यार !!!

अंग्रेजी वैसे तो हमारे लिए विदेशी भाषा है , पर कई बार हमारे लिए बहुत सुविधाजनक हो जाती है. अब देखिए शब्द encounter. गजब का शब्द मिला है ये हमारी कानून व्यवस्था की रखवाली पुलिस को. इसके हिंदी अनुवाद है मुठभेड़, मुकाबला, आमना सामना, आकस्मिक भेंट, आकस्मिक सामना. अब उदाहरण के लिए, (उदाहरण भी एकदम अभी का ही ले लें विकास का) हिंदी में encounter कहना हो तो आपको कहना होगा "विकास दुबे मुकाबले में मारा गया" या "विकास दुबे आमने सामने की मुठभेड़ में मारा गया."

जैसे ही आप इतना सब हिंदी में लिखेंगे या बोलेंगे, पाठक या दर्शक (दर्शक ही ज्यादा होते हैं आजकल, पाठक तो आप जैसे कद्रदान ही गिने चुने बचे हैं) के दिमाग में जो चित्र बनेगा वह होगा कि विकास दुबे और पुलिस के जवान आमने सामने खड़े हैं और लड़ रहे हैं. ये भी हो सकता है कि दोनों पक्ष पेड़ या दीवार की आड़ में हैं और एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं , गोलियों से, या जो साधन उनके पास है उससे. और जब लड़ रहे हैं तो दोनों पक्षों को नुकसान होगा , किसी को कम किसी को ज्यादा लेकिन होगा तो सही. 

एनकाउंटर में एक और विशेष तत्व है और वह है आकस्मिकता का, यानी अचानक हो जाने वाली मुठभेड़. यानी कोई पूर्व योजना या पहले से तय समय पर होने वाले आमने सामने को आप एनकाउंटर नही कहेंगे. जैसे Our aircraft encountered air turbulence.  जब आपके प्लेन ने उड़ान भरी थी तब आपने योजना नही बनाई थी कि आप खराब मौसम से मुठभेड़ करेंगे, लेकिन you just encountered bad weather. तो अगर एनकाउंटर शब्द भारतीय पुलिस के पास नही होता तो बड़ी मुश्किल हो जाती. हिंदी में कहना पड़ता  कि "विकास से अचानक हो जाने वाली मुठभेड़ में विकास मारा गया"  उसकी बजाए कितना आसान है, कम से कम शब्दों में कह दो "विकास एनकाउंटर में मारा गया" समाचार पढ़ने वाले युवक युवतियों के लिए भी कितना आसान.


फायदा ये भी है कि एनकाउंटर  बोलते ही दर्शक (या पाठक) के दिमाग मे जो चित्र बनता है वह आमने सामने आ जाना या "आकस्मिक" मुठभेड़ होता ही नही है. चित्र यह बनता है कि पुलिस से कोई अपराधी भाग रहा  है, पुलिस उसका पीछे है , पुलिस उस पर गोलियां चलाती है और वह मारा जाता है. 

लेकिन एक मिनिट , अगर ये एनकाउंटर है तो इसमे "मुकाबला" कहां है !!! हां तो बताना होता है कि "विकास ने पुलिस पर गोली चलाई" किसी को लगे या न लगे पर "विकास ने गोली चलाई" तो एनकाउंटर में मुकाबला तो सिद्ध हो गया, लेकिन आकस्मिकता अभी भी गायब है. तो उसके लिए जीप या कार के पलटते, (या पंचर होते) ही "अचानक" विकास भाग निकलता है. हां अचानक भागने के पहले वह बगल में बैठे इंस्पेक्टर की पिस्तौल ले जाना नही भूलता. अबे विकास, पिस्तौल नहीं ले जाएगा तो "मुकाबला" कैसे होगा, तू गोली कैसे चलाएगा. तो पिस्तौल ले जाना मत भूलियो. 

अब पिस्तौल ले कर भाग . दोनों पैरों में रॉड डली हुई है, 12 घंटे करीब का सफर गाड़ी में बैठे बैठे हो गया है. आप कभी 2 घंटे भी कर में सफर करके कभी चाय पीने उतरते हैं तो आपको आधा मिनिट लगता है पैर सीधे करने और चलने लायक होने में.

यहां 12 घंटे पुलिस की गिरफ्त में बैठे होने और गाड़ी पलटने के शॉक के बाद भी विकास रॉड लगी हुई टांगों से दौड़ लगा देता है, हां हां इंस्पेक्टर की पिस्तौल निकाल कर ले जाने के बाद. तो "अचानक" भी हो गया, अब थोड़ा दौड़ ले, ताकि "मुकाबले" का ये हिस्सा भी पूरा हो जाये. फिर पलटना पुलिस पर गोली चलाना.  ओ के,  फिर  ? अबे फिर क्या. उसके बाद पुलिस तेरा "एनकाउंटर कर देगी"


लेकिन ये जो कार्यक्रम चल रहा है यह भी तो एनकाउंटर का हिस्सा है ना, अचानक और मुकाबला वगैरह .... अबे वो तो अंग्रेजी वाले एनकाउंटर के लिए है. तो हिंदी का एनकाउंटर कुछ अलग है और अंग्रेजी का अलग? यार तुम्हारी मुसीबत यही है कि सवाल बहुत पूछते हो . हमारे हिंदी का एनकाउंटर बहुत सिंपल है उसमें तेरे को कुछ नही करना है. बस तू भाग पीछे मुड़ और बूम.... कर दिया एनकाउंटर. तो ये हमारे यहां ही होता है भाई, जहां एनकाउंटर "होता" नही है, "किया जाता" है.

पुराने गाने जिन्हें याद है उन्हें शायद ये गाना याद आएगा "हो जाता है प्यार, प्यार किया नही जाता" वैसे ही भाइयों "हो जाता है एनकाउंटर, एनकाउंटर किया नही जाता"  ये समझ लो, नही भी समझो तो हम क्या बिगाड़ लेंगे. हिंदी, अंग्रेजी दोनों की परीक्षाएं पास कर चुके हो डिग्रियां मिल गई है, नौकरियां भी मिल गईं हैं, हां हां वही तो बचा रहे हो, बचा लो. 

दिए जलाओ, नगाड़े बजाओ, विकास को न्याय मिल गया, न्यू इंडिया में आपका स्वागत है!



- मनीष सिंह
इंस्टंट न्याय.... न कोर्ट, न पेशी, न जज, न जल्लाद, ये एनकाउंटर न्याय है बबुआ। भारत अब वो भारत नही जो टीवी पर गोलियां बरसाते हुए पाकिस्तानी को भी भारतीय न्यायिक प्रक्रिया से गुजारता था। अब नुक्कड़ पर खड़ा पुलिसवाला शहंशाह है- जो रिश्ते में तो आपका बाप लगता है। 

बापजी रिपब्लिक में आपका स्वागत है। वर्दी बदल दी जानी चाहिए, खाकी और खादी का अंतर भी। अब इनको चाहिए काली पोशाक, एक हाथ मे रिवाल्वर दूसरे में फांसी की रस्सी। पीछे साउंड ट्रेक चले- "अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर, हर जुल्म मिटाने को..."

यह अंधेरी रात ही है। यह अंधेरा पसन्द किया गया था, चाहा गया था। विकास के गुजरात मॉडल की तरह, न्याय के इस मॉडल को सोहराबुद्दीन मॉडल का नाम मिलना चाहिए। यह मजबूत सरकार है। हमने सोचा था कि मजबूती दिल्ली में रहेगी, हम दूर अपने शहर गांव में आराम से रहेंगे। ऐसा नही होता, सरकार हमेशा आपके दरवाजे से थोड़ी दूर ही होती है। 

उसकी 56 की छाती पर बुलेटप्रूफ जैकेट होती है, आपकी नही। आपकी मजबूती की तमन्ना गलवान में पूरी नही हो पाती, तो क्या हुआ। यह भोपाल हैदराबाद और केरल में तो पूरी हो रही है। आपके मोहल्ले में भी होगी, आराम से बैठिए, जब तक गोली आपके घर मे न घुसे। अभी थोड़ा वक्त है, तब तक दिए जलाए जा सकते हैं, थालियां और नगाड़े बजाए जा सकते हैं। 

आप पूछ सकते हैं कि नया क्या है। क्या 70 साल में एनकाउंटर नही हुए? जी हां, बिल्कुल हुए। नयापन बेशर्मी का है। किस्सों का है, उस कुटिल मुस्कान का है जो बेशर्म झूठ बोलते वक्त मूंछो के नीचे फैल आती है। आगे स्क्रिप्ट वही है, ज्यूडिशियल इंक्वायरी, और फिर कहानी का वेलिडेशन। सब मिले हुए हैं जी। 

मुझे लगता है कि कुछ तो बदलाव होना चाहिए। हर थाने और चौकी में एक नई पोस्ट क्रिएट होनी चाहिए। नही एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नही ..  वो तो हर सशस्त्र पुलिसवाला कभी भी बन सकता है अगर सैय्या कोतवाल हो और सामने कांपता हुआ आरोपी। हर थाने चौकी में एक "एनकाउंटर  स्क्रिप्ट राइटर" की जरूरत है। जो एनकाउंटरों के लिए एक कन्विसिंग कहानी लिख सके। 

असल मे जजो को इस काम मे प्रतिनियुक्त किया जा सकता है। क्योंकि न्यायालयों की जरूरत तो अब है नही। ये कहानियां आपके कोर्ट में आने पर आप स्वीकार कर सकते है, तो बेहतर है थाने में बैठकर लिख भी दिया करें। 

मेरी मांग और सुझाव पर गहराई से सोचिये। आखिर आपके भैया, पापा, बेटे की लाश जब घर में आये, तो साथ आयी उसके एनकाउंटर की कहानी में जरा विश्वसनीयता भी होनी चाहिए.. 

तो बताइये बहनों और उनके भाइयो। 
होनी चईये कि नई होनी चईये ??

वो कौन हैं जो चाहते थे विकास दुबे जिंदा न रहे, किसके लिए मुसीबत बन सकता था विकास दुबे?


- रोहित देवेंद्र शांडिल्य
इसमें कोई शक नहीं है कि विकास दुबे की पुलिस कस्टडी में हत्या की गई. शक इसमें भी नहीं है कि वह अपराधी था। शक सिर्फ इस बात में है कि क्या विकास दुबे इस समय यूपी का ऐसा अपराधी था जिसे हर हाल में मार डालना ही अंतिम विकल्प था। उसका जिंदा रहना यूपी की कानून व्यवस्‍था ही नहीं पूरी मानव सभ्यता के‌ अस्तित्व के लिए खतरा था? 

अपराध की दुनिया से सीधा वास्ता ना रखने वाले लोगों के लिए एक सप्ताह पहले विकास दुबे कोई नहीं था। ना उसे लोग नाम से जानते थे ना ही काम से और ना ही तस्वीरों से। एक रात जब पुलिस कर्मियों के मरने की खबर आई तो किसी दूसरे विकास की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं। किसी एड्रेस प्रूफ में लगी उसकी धुंधली सी तस्वीर ही मीडिया के पास थी। कानपुर और कानपुर देहात के अलावा विकास को जानने वाले उंगलियों में गिनने भरके थे। आप खुद से पूछिए जिस विकास के एनकाउंटर के लिए आप बेकरार थे उसे आप आठ दिन पहले जानते भी थे क्या?  फिर ऐसा क्या हुआ कि एक अपराधी जिसके ऊपर एक सप्ताह पहले तक पुलिस ने गैंगस्टर एक्ट नहीं लगाया हुआ था उसे गिरफ्तार करने के लिए भारी पुलिस दल वहां अचानक पहुंचा। इसमें भी शक नहीं है कि उसकी मुखबिरी ना होती तो उसी रात उसको मार डालने के इंतजाम थे।

शक इसमें भी नहीं कि उस रात जो कुछ जो भी हुआ वह गलत था। पुलिस कर्मियों की हत्याएं कष्टकारी थीं। लेकिन न्याय की व्यवस्‍था क्या कहती है?  जब एक साथ कई मासूम लोगों को डायनामाइट से उड़ा देने वालों को जेल में रखा जाता है। उनकी सुनवाई होती है फिर उन्हें सजा होती है। तो फिर यह अधिकार विकास दुबे को क्यों नहीं मिलना चाहिए था? विकास दुबे को भारत की न्याय प्रणाली और संविधान में मिले अधिकार एक झटके में इसलिए खत्म किए जा सकते हैं क्योंकि कोई चाहता है कि अब वह जिंदा ना रहे? उसका जिंदा रहना किसी के लिए मुसीबत बढ़ते जाना जैसा बन गया था? 

या विकास को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसके आदमियों ने पुलिस वालों की हत्याएं की थीं। तो यदि कोई अपराधी किसी आम आदमी की हत्या करता है तो उसके ऊपर अपराध कोर्ट साबित करती है लेकिन जब अपराध पुलिस के साथ होता है तो यह नियम बदल जाते हैं। पुलिस की भी नियत देखिए। उसकी निगाह में एक जान की कीमत तब महत्वपूर्ण है जब हत्या पुलिस वाले की हो। ‌मरने वाला यदि किसी दूसरे पेशे से हो तब पुलिस के लिए खास चिंता का विषय नहीं है। आप या तो पुलिस में भर्ती हो जाइए यदि ऐसा नहीं कर पाते हैं तो फिर आपकी जान बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। 

रिश्वत लेकर बनाए गए ओवरब्रिज के गिरने से एक झटके में दर्जनों लोग मर जाते हैं। जिनके घर के लोग मरते हैं वह बंदूक लेकर किससे बदला लेने निकले? पुलिस सजेस्ट करे कि वह किसको मारें? उनके पास रिवॉल्वर नहीं होतीं या बदला लेने का यह अधिकार पुलिस के पास होता है। पुलिस के जिस कृत्य को आप अपराधी के मार डालने से जस्टीफाई कर रहे हैं जरा उसकी नियम टटोलकर देखिए। 

सरकार से सवाल पूछना या उसके किसी कृत्य पर बात करना फैशन के बाहर है। आईटी सेल तय करता है कि समाज किस दिशा में सोचे। आईटी सेल की सोच के अनुसार ही मीडिया अपनी थीम तय करता है। आईटी सेल इस हत्या को जस्टीफाई कर रहा है तो मीडिया का फर्ज है कि वह भी इसे जस्टीफाई करे। मैं टीवी नहीं देखता लेकिन मीडिया इस घटना पर प्रश्न खड़ा करने के बजाय योगी की सख्त इमेज से जोड़कर उस पर कविताएं लिख रहा होगा। 'ले लिया बदला' या 'चमकता प्रदेश थर्राते अपराधी' जैसे थीम वाले विशेष प्रोग्राम चल रहे होंगे। 

वह समय गया जब मीडिया किसी घटना पर नीर झीर का विवेक करता था। वह गलत और सही को चुनने में आपकी मदद करता था। अब वह दौर नहीं है। यह आपको सोचना है कि पुलिस और सरकारों के मुंह में जब किसी की हत्या करने का खून लग चुका हो तो यह आपके लिए किस हद तक नुकसान देय है। कमजोर न्यायपालिका और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया आपका भला कर सकती हैं या बुरा ये बात आने वाले दो दिन के 'स्मॉल लॉकडाउन' में आप सोच सकते हैं...

विकास दुबे एनकाउंटर: कानपुर पुलिस का बदला तो पूरा हुआ, लेकिन असल चुनौती अभी बाकी है



-विजय शंकर सिंह
कानून के हांथ बहुत लंबे होते हैं। कभी कभी इतने लंबे कि, कब किसकी गर्दन के इर्दगिर्द आ जाएं पता ही नहीं चलता है। एक सड़क दुर्घटना, घायल मुल्जिम द्वारा भागने की कोशिश और फिर उसे पकड़ने की कोशिश, पुलिस पर हमला, पुलिस का आत्मरक्षा में फायर करना और फिर हमलावर का मारा जाना। विकास दुबे को लेकर चल रही सनसनी का यही अंत रहा। 

महाकाल के मंदिर से गिरफ्तार हो कर बर्रा के पास हुयी मुठभेड़ तक यह सनसनी लगातार चलती रही और आज जब मैं सो कर उठा तो बारिश हो रही है, और सोशल मीडिया पर विकास दुबे के मारे जाने की खबरें भी बरस रही हैं। यह खबर हैरान नहीं करती है क्योंकि यह अप्रत्याशित तो नहीं ही थी। प्याले और होंठ के बीच की दूरी कितनी भी कम हो, एक अघटित की संभावना सदैव बनी ही रहती है। 

विकास दुबे खादी, खाकी और अपराधी इन तीनों के अपावन गठबंधन का नतीजा है और कोई पहला या अकेला उदाहरण भी यह नहीं है । शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे विकास दुबे द्वारा 8 पुलिसकर्मियों की दुःखद हत्या के बाद, उससे सहानुभूति शेष रही हो, पर यह एक अपराधी का खात्मा है, सिस्टम में घुसे अपराध के वायरस का अंत नहीं है। विकास दुबे मारा गया है, उसके अपराध कर्मो ने उसे यहां तक पहुंचाया, पर जिस अपराधीकरण के वायरस के दम पर वह, पनपा और पला बढ़ा, वह वायरस अब भी ज़िंदा है, सुरक्षित है और अपना संक्रमण लगातार फैला रहा है। असल चुनौती यही संक्रमण है जो शेष जो हैं, वे तो उसी संक्रमण के नतीजे हैं। 

इस प्रकरण को समाप्त नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि इसे एक उदाहरण समझ कर उस संक्रमण से दूर रहने का उपाय विभाग को करना चाहिए। राजनीति में अपराधीकरण को रोका थामा जाय, यह तो फिलहाल पुलिस के लिये मुश्किल है लेकिन पुलिस तंत्र कैसे अपराधी और आपराधिक मानसिकता की राजनीति से बचा कर रखा जाय, यह तो विभाग के नेतृत्व को ही देखना होगा। 8 पुलिसकर्मियों की मुठभेड़ के दौरान हुयी शहादत, पुलिस की रणनीतिक विफलता, और पुलिस में बदमाशों की घुसपैठ और हमारे मुखबिर तंत्र जिसे हम, क्रिमिनल इंटेलिजेंस सिस्टम कहते हैं, की विफलता है। क्या अब हम फिर से, कोई फुंसी, कैंसर का थर्ड या फोर्थ स्टेज न बन जांय, को रोक सकने के लिये तैयार हैं ? 

कहा जा रहा है कि सारे राज विकास दुबे के मारे जाने के बाद दफन हो गए । यह बात भी इस साफ सुथरी और सीधी मुठभेड़ की तरह मासूम है कि, कौन से राज पोशीदा थे जो दफन हो गए ? हां एक राज ज़रूर रहस्य ही बना रहा कि उस काली रात को जब डीएसपी देवेन्द्र मिश्र अपने 7 साथियों सहित उस मुठभेड़ में मारे गए तो असल मे हुआ क्या था ? विकास दुबे को पुलिस के रेड की खबर किसने दी थी और फिर खबर नियमित दी जा रही थी या यही ब्रेकिंग न्यूज़ थी कि उसके यहां छापा पड़ने वाला है ? इस राज़ का खुलना इसलिए भी ज़रूरी है कि यह एक हत्यारे का अंत है न कि अपराध का पटाक्षेप। 

रहा सवाल राजनीति में घुसे हुए अपराधीकरण के राज़ के पोशीदा रह जाने का तो वह राज़ अब भी राज़ नहीं है और कल भी राज़ नहीं था। विकास दुबे अगर ज़िंदा भी रहता तो क्या आप समझते हैं कि वह सब बता देता ? वह बिल्कुल नहीं मुंह खोलता और जिन परिस्थितियों में वह पकड़ा गया था उन परिस्थितियों में वह अपने राजनीतिक राजदारों का राज़ तो नहीं ही खोलता। यह तो पुलिस को अन्य सुबूतों, सूचनाओं और उसके सहयोगियों से ही पता करना पड़ता। क्या सरकार केवल विकास दुबे के राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यापारिक सम्पर्को की जांच के लिये भी कोई दल गठित करेगी या इसे ही इतिश्री समझ लिया जाएगा ? 

विकास के सारे आर्थिक और राजनीतिक सहयोगी अभी जिंदा हैं। विकास के फोन नम्बर से उन सबके सम्पर्क मिल सकते है। मुखबिर तंत्र से सारी जानकारियां मिल सकती हैं। उनके अचानक सम्पन्न हो जाने के सुबूत भी मिल सकते हैं। राजनीति में कौन कौन विकास दुबे के प्रश्रय दाता हैं यह भी कोई छुपी बात नहीं है। पर क्या हमारा पोलिटिकल सिस्टम सच मे यह सब राज़ और राजनीति, पुलिस तथा अपराधियों के गठजोड़ के बारे में जानना चाहता है और अपराधीकरण के इस वायरस से निजात पाना चाहता है या वह केवल 8 पुलिसकर्मियों की शहादत का बदला ही लेकर यह पत्रावली बंद कर देना चाहता है ? बदला तो पूरा हुआ पर अभी असल समस्या और चुनौती शेष है। 

यह एक उचित अवसर है कि सीआईडी की एक टीम गठित कर के 8 पुलिसजन की हत्या की रात और उसके पहले जो कुछ भी चौबेपुर थाने से लेकर सीओ बिल्हौर के कार्यालय से होते हुए एसएसपी ऑफिस तक हुआ है, उसकी जांच की जाय। एसटीएफ को जिस काम के लिये यह केस सौंवा गया था वह काम एसटीएफ ने पूरा कर दिया और अब उसकी भूमिका यहीं खत्म हो जाती है। विकास दुबे के अधिकतर नज़दीकी बदमाश मारे जा चुके हैं। जो थोड़े बहुत होंगे वे स्थानीय स्तर से देख लिए जाएंगे। अब ज़रूरी है कि उसके गिरोह का पुलिस, प्रशासनिक और राजनीतिक क्षेत्रो में जो घुसपैठ है उसका पर्दाफाश किया जाय जिससे यह गठजोड़ जो समाज मे आपराधिक वातावरण का काफी हद तक जिम्मेदार है वह टूटे। 

माफिया का जिस दिन आर्थिक साम्राज्य दरकने लगेगा उसी दिन से अपराधियों का मनोबल भी टूटता है। अपराध से यकायक बढ़ती हुयी संपन्नता, और अफसरों एवं राजपुरुषों की नजदीकियां युवाओं को इस तरह का एडवेंचर करने के लिये बहुत ही ललचाती हैं। गाड़ी पलट मार्का मुठभेड़ों से जनता खुश होती है क्योंकि वह शांति से जीना चाहती है, गुंडों बदमाशों से मुक्ति चाहती है। यह मुक्ति चाहे उसे न्यायिक रास्ते से मिले या न्याय के इतर मार्ग से। यह ऐसे ही है जैसे कोई बीमार एलोपैथी से लेकर नेचुरोपैथी तक की तमाम दवाइयां अपने को स्वस्थ रखने के लिये आजमाता है, कि न जाने कौन सी दवा काम कर जाए ! पर ऐसी मुठभेड़ों पर हर्ष प्रदर्शन, न्यायिक व्यवस्था पर जनता के बढ़ते अविश्वास का ही परिणाम है।

अपराधी-पुलिस गठजोड़ और मुखबिरी एक नहीं, हर थाने की बात है, कहीं भी देख लीजिए !



- समीरात्मज मिश्र
'विकास दुबे का जो भी आपराधिक इतिहास दिख रहा है, उससे कम से कम कानपुर ज़िले की पुलिस तो वाकिफ़ रही ही होगी. नहीं तो चौबेपुर थाने की पुलिस को तो ज़रूर सब कुछ पता रहा होगा क्योंकि वहीं उनके ख़िलाफ़ एक दो नहीं बल्कि साठ एफ़आईआर दर्ज हुई हैं. विकास दुबे के पास इतने असलहे और गोला-बारूद थे कि पूरा घर इन्हीं सब से भरा हुआ था (ऐसा पुलिस का कहना है), इसीलिए घर को ज़मींदोज़ करना पड़ा. लेकिन तीन जुलाई से पहले पुलिस को यह सब मालूम नहीं था. धीरे-धीरे सारी बातें पता लग रही हैं.

इन्हीं सब मुद्दों पर एक वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर से चर्चा हो रही थी तो इन ख़बरों पर वो हँसने लगे. मैंने पूछा हँस क्यों रहे हैं? तो उनका जवाब था, “बताया ऐसे जा रहा है जैसे कोई बहुत दुर्लभ तथ्य हो और इससे पहले गठजोड़, मुखबिरी, फ़रार जैसी बातें सुनी ही न गई हों. दरअसल, ये किसी एक थाने की नहीं, हर थाने की बात है. कहीं भी देख लीजिए. चौबेपुर थाने में इतना बड़ा कांड हो गया तो पता चल गया, बाक़ी सब अपनी गति से चल रहा है.”

क्राइम रिपोर्टर महोदय से तमाम जानकारियां मिलीं. बहरहाल, पुलिस की सक्रियता और क़ाबिलियत तो इसी में दिख रही है कि विकास दुबे पर घोषित इनाम तीन दिन में 25 हज़ार रुपये से बढ़कर एक लाख रुपये तक पहुंच गया है लेकिन विकास दुबे की तलाश में लगीं दर्जनों टीमों को उसके बारे में अब तक कोई सुराग नहीं मिल सका है. ख़ैर, पुलिस और एसटीएफ़ अपना काम कर रही हैं. 

सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि दर्जनों मुक़दमों का आरोप धारण किए हुए व्यक्ति यदि अदालत से दोषी साबित नहीं हुए फिर भी क्या उनकी आपराधिक कुंडली का सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण नहीं होना चाहिए? क्या ऐसे लोगों को तब तक विशिष्ट स्थान मिलते रहना चाहिए जब तक कि अपराध साबित न हो जाए? लेकिन ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा. अपराध साबित होने के इंतज़ार में ऐसे अपराधियों से न जाने कितने अपराध होते रहेंगे और लोग भुगतते रहेंगे. कुछ दिन तक यह मुद्दा भी गरम रहेगा और उसके बाद सब लोग वैसे ही भूल जाएंगे जैसे कुंडा में डीएसपी ज़ियाउल हक़ की हत्या भूल गए हैं, जवाहर बाग कांड में मुकुल द्विवेदी की हत्या भूल गए और बुलंदशहर में सुबोध कुमार सिंह की हत्या भूल गए हैं.

इस बात में भी ज़रा भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विकास दुबे यदि विधानसभा-लोकसभा का चुनाव लड़कर माननीय बन गए होते तो उनके ख़िलाफ़ लगे इन दर्जनों मुक़दमों को ख़त्म करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई होती, ये मुक़दमे राजनीति से प्रेरित बताए जाने लगते और फिर धीरे-धीरे ये सारे मुक़दमे ख़त्म भी हो गए होते. हां, ये ज़रूर है कि विकास दुबे के संस्कार न बदलते बल्कि वो आगे भी वैसे ही बने रहते जैसे कि मुक़दमे दर्ज होते वक़्त थे. (बात सिर्फ़ विकास दुबे की ही नहीं है, उनके जैसे तमाम लोगों की है. बहुत से लोग इस प्रक्रिया की बैतरणी को पार कर चुके हैं और बहुत से लोग पार करने के प्रयास में हैं.)

पुलिस सिस्टम के तो कहने ही क्या? आम जनता के साथ उनका जो व्यवहार होता है, वह प्रवृत्ति अपने घर के भीतर भी क़ायम रहती है जो कि बहुत स्वाभाविक भी है. शारीरिक और क़ानूनी प्रशिक्षण के साथ जब तक भर्ती होने वाले रंगरूटों और अफ़सरों को इस तरह की नैतिक शिक्षा नहीं दी जाएगी और इसे आत्मसात करने पर ज़ोर नहीं दिया जाएगा, तब तक ये होता ही रहेगा.